tag:blogger.com,1999:blog-89251984736460843592024-03-13T05:05:50.827-07:00RAJAN SINGHराजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-75063684738343987752014-10-12T23:53:00.001-07:002014-10-12T23:59:04.073-07:00कुछ हैदर के बारे में..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
"मैं वामपंथी नहीं तो कलाकार नहीं" कहने वाले विशाल भारद्वाज साहब इतना तो समझते ही होंगे कि यहाँ वामपंथी व्यवस्था भी होती तो आपको यह कलाकारी दिखाने का मौका ही नहीं मिलता। फिल्म में विशाल को केवल हैदर और उसके परिवार के प्रति दर्शकों में सहानुभूति पैदा करनी थी और इसके लिए वे किसी भी हद तक चले गये हैं। यहाँ तक कि कुछ जगहों पर उन्होंने महत्वपूर्ण तथ्यों को या तो गोल कर दिया है या उन्हें तोड मरोड कर पटक दिया है।सबसे ज्यादा गुस्सा तब आता है जब एक आर्मी अफसर से ही कहलवाया गया है कि देखो हम तुम कश्मीरियों के साथ कितना बुरा कर रहे हैं और हमने कैसे तुम्हारे साथ वादाखिलाफी की यूएन के करार तोडकर ।और भारत और पाकिस्तान दोनों ने कश्मीर से सेनाएँ नहीं हटाई। जबकि सच यह है कि उस करार में भी पहले पाकिस्तान द्वारा डीमिल्ट्राईजेशन की बात है जबकि भारत को कानून व्यवस्था बनाएं रखने के लिए एक हद तक वहाँ सेना रखने की छूट है। और वैसे भी शिमला समझौते के बाद जनमतसंग्रह वाली बात पुरानी हो चुकी है। पर विशाल का मकसद भारत का भी पक्ष रखना है ही नहीं।वो क्यों नहीं बताते कि भारत ने 1988 से पहले वहाँ एक भी गोली नहीं चलाई?क्यों नहीं बताते कि कैसे कश्मीर की आबादी के एक हिस्से ने खुद धर्म के नाम पर हथियारबंद आंदोलन को सपोर्ट किया था? एक बूढ़े से थोड़ी लिप सर्विस जरूर करवाई गई है पर वहाँ भी समर्थन आजादी का ही?
खैर क्यों न हो विशाल को शायद लगता होगा कि भारत से अलग होकर गिलानी साहब और उनके समर्थक वहाँ जरूर वामपंथी व्यवस्था ही लागू करेंगे ।
अफ्सपा से बड़ा आतंकित है विशाल। लेकिन यहाँ भी बताना चाहिए कि क्या वहाँ स्थानीय पुलिस और प्रशासन स्थिति को फिर से बिगडने नहीं देंगे?
और ये कानून तो वहाँ अलगाववादियों की हमदर्द सरकार की वजह से ही है। वर्ना राज्य सरकार ने जिन इलाकों को अशांत घोषित कर रखा है उन्हें शांत घोषित कर दे। वहाँ फिर अफस्पा लग ही नहीं सकता। फिर तो सेना भी अपने जवानों के हाथ बांधकर उन्हें मरने के लिए नहीं भेजेगी। पर ये सब तथ्य विशाल को क्यों बताने हैं। उन्हें तो बस चुत्स्पा करना है।
और हां विशाल जी। कला के नाम पर कुछ भी नहीं चल जाता है यदि कोई कुछ बोल नहीं रहा तो। मां बेटे के बीच के भावुक दृश्यों को तो कम से कम द्विअर्थी बनाने की कोशिश न किया करें। नजरों का दोष जैसा घिसा पिटा बहाना मारा जा सकता है पर दर्शक आपकी नियत महसूस कर लेता है। ऐसे दृश्य असहज कर जाते हैं पर कोई कुछ बोल नहीं पाता पर मैंनें बोल दिया है ठीक है?</div>
राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-49661941136281645542013-01-08T04:26:00.002-08:002013-01-08T04:26:19.310-08:00अपने अपने एजेंडे <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वैसे तो महिलाओं को लेकर समाज,कानून और व्यवस्था का क्या रवैया है हम सबको
पता है ,लेकिन दिल्ली प्रकरण न हुआ होता तो हमें पता ही नहीं चलता की
दरिन्दगी की हद क्या होती है,की पुलिस किस कदर असंवेदनशील हो सकती है,यहाँ
तक की खुद एक महिला पुलिसकर्मी भी कैसे इतनी वीभत्स घटना को इतने हलके में
ले सकती है जबकि हम कहते हैं की पुलिस में महिलाओं की संख्या बढाई जानी
चाहिए ताकि पुलिस का चेहरा कुछ उदार हो सके।हमें ये भी नहीं पता चलता की
ऐसी मुसीबत में घिरी किसी लडकी का संघर्ष करना भी बहादुरी नहीं बल्कि
बेवकूफी होती है।जिसका मजाक उड़ाया जाना चाहिए।हमें यह भी नहीं पता चलता की
कितना आसान है ऐसे दरिंदों से छुटकारा पाना बस लडकी उन्हें भाई कहे और उनके
पैरों में पड़ जाएँ।जब तरीका इतना सरल है तो इतना हंगामा क्यों मचाया जा
रहा है।भाई ये बात एक अंतर्राष्ट्रीय भगवान् ने कही हैं जो मीठे मीठे
प्रवचन देता रहता है,संस्कृत के श्लोक बकता रहता है और खुद को भगवान् कहता
और कहलवाता है जो खुद सारे ऐश्वर्य भोगता है और दूसरों को भोग विलास
त्यागने को कहता है ऐसे संत आसाराम बापू की बात में क्या कुछ दम नहीं
होगा?इससे पहले यही बात एक वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न विदुषी भी कह चुकी
है।जिसने की उस युवती के संघर्ष का मजाक तक उड़ा दिया।हद तो ये है की वो अभी
भी अपनी बात पर कायम है।<br /> खैर ये सब तो बड़ी ही साधारण सी
चीजें हैं (मतलब आजकल साधारण लगने लगी हैं ) यदी दामिनी प्रकरण (किसी चैनेल ने उस लडकी को दामिनी नाम दिया तो
किसीने निर्भया,लेकिन एक चेनेल ने तो वेदना नाम ही दे दिया।) न हुआ होता
तो हमें ये ही नहीं पता चलता की कैसे कुछ जातियों के साथ भेदभाव ही
बलात्कार जैसे अपराध का कारण है।जैसा की शरद यादव साहब हमें बताते हैंकी
हमें गहराई से इस बात को सोचना चाहिए।मेरी जानकारी कम हैं लेकिन शायद
स्वर्ण महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं होते या बलात्कारी शायद ये करने से
पहले जाती पूछते हैं।कुछ और जानकारी में इजाफा हुआ जब ये सुना की यदी
बलात्कार को रोकना है तो इसका उपाय सिर्फ एक धर्म में ही हैं।ये अलग बात है
की ऐसा कहने वाले खुद अपने कुछ भटके भाइयों को रोक नहीं पाए हैं।यही नहीं
एक सेकुलरिज्म के झंडाबरदार तो यहाँ तक कह गए कि अमेरिका जिस तरह इस्लामिक
मुल्कों पर अत्याचार कर रहा है उससे बलात्कार जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं।थोडा
घुमा फिरकर ही सही भारत के सन्दर्भ में ये जनाब थोडा घुमा फिराकर कहते हैं
की यहाँ ऐसे अपराधों का कारण बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता है।और ऐसे
सांप्रदायिक तत्व ही बलात्कार करने वालों को प्रोत्साहित करते हैं।धन्य है
ऐसी एकतरफ़ा सोच।<br /> शीला दिक्षित से राज ठाकरे तक दरअसल
सबके अपने अपने सेट एजेंडे हैं।इतनी दर्दनाक घटना को अपने पक्ष में भुनाने
का।लोगों खासकर महिलाओं का ध्यान वास्तविक समस्या से हटाने का।और हम सब भी
एक काम तो यही कर रहे हैं यानी असली मर्ज का इलाज न करना,उसकी तरफ से मुंह
मोड़ना।पूरे प्रकरण के बाद आप किसी लड़के से पूछिए वो बस नेताओं पुलिस या
सरकार को कोसता मिलेगा क्योंकि माहौल ही ऐसा बन गया है।समाज में कुछ लोग
अच्चा करते हैं उसे हम अपनी उपलब्धि मानते हैं फिर बुरा करने पर अपनी गलती
क्यों नहीं मानते।उपाय की बात तो बाद में आयेगी।अभी कुछ दिनों पहले मैं एक
सीरियल देख रहा था जिसमें नायिका कहती है की छेड़छाड़ और बलात्कार आदी रोकने
हैं तो पुरुषों को ही घर से बाहर नहीं निकलने देना चहिये।बात सही लग सकती
है लेकिन एक कडवी सच्चाई ये है की ज्यादातर यौन शोषण और बलात्कार जैसे
अपराध घरों के भीतर ही होते हैं और नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा किये जाते
हैं कई बार इस तरह के सर्वे हो चुके हैं ।हम कब तक सच्चाई से मुंह मोडते
रहेंगे? यहाँ ब्लॉगजगत में भी येही देखने को मिल रहा है।इतने दिन से पुरुष
ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं की देखो जी महिलाएं कैसे कैसे बयान दे रही
हैं फिर पुरुषों को ही क्यों दोष दिया जाए।महिलाएं ठीक उल्टा कर रही
हैं।अभी एक लेख पढ़ा जिसमें लेखिका बड़ी ही चालाकी से ये कहती दिखती है की
जिस महिला वैज्ञानिक ने विवादास्पद बयान दिया उस समय वहाँ ज्यादातर पुरुष
थे जिन्होंने विरोध नहीं किया इस हिसाब से पुरुष ही ज्यादा दोषी है।क्या
बेवकूफी है ये?और ये क्या कोई दोषारोपण की प्रतियोगिता चल रही है ?पुरुषों
के बारे में तो जगजाहिर है की वो किस तरह टालू रवैया अपनाते हैं लेकिन मैं
खुद हैरान रह गया जब देखा की खुद महिलाएं इस तरह की बातें कर रही है की यदी
कोई कडा कानून बन गया तो निर्दोष पुरुष भी फंस जायेंगे और बेटों वालों का
तो जीना ही हराम हो जाएगा।अब ये सब हो क्या रहा है?<br /> जब
समाज का ये हाल है तो कोई उम्मीद सचमुच नजर नहीं आती।ऐसे लोग क्या अपने
लड़कों को सुधारेंगे और क्या लड़कियों को साहसी बनायेंगे।इस घटना के बाद
शाहरुख़ खान कह रहे थे की मैं बड़ा दुखी हूँ बल्कि पुरुष होने पर ही शर्मिंदा
हूँ।मैं ये नहीं कहता की शाहरुख़ को कोई दुःख नहीं होगा लेकिन कई बार हम
अनजाने में ही कुछ ऐसी बात कह जाते है जो दूसरों पर बहुत गलत असर डालती
हैं।आपको शायद याद होगा इन्हीं शाहरुख़ का बयान कई साल पहले आया था जिसमें
उन्होंने कहा था की जितनी भी बोलीवुड की नायिकाएं हैं जिनके बेटी है उन्हें
अब सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि मेरा बेटा बड़ा होकर उनकी बेटियों को
परेशान किया करेगा।अब ये बात उनहोंने मजाक में कही जिसका कोई गलत उद्देश्य
भले ही नहीं होगा लेकिन इस तरह की बातें समाज में भी की जाती हैं और इनका
असर लड़कों पर बहुत नकारात्मक होता है,उन्हें लगने लगता है की लड़कियों के
साथ थोड़ी बहुत छेड़खानी आदि में कोई गलत बात नहीं है।क्या किसी लडकी की मां
इतनी आसानी से ये बात लड़कों के माता पिता से कह सकती है ?जब तक हम समस्या
की गमभीरता को नहीं समझेंगे तब तक कुछ नहीं होने वाला है।फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट
,पुलिस गश्त,महिला पुलिसकर्मियों की संख्या में इजाफा,जगह जगह सादा वर्दी
में पुलिस की तैनाती,काले शीशे लगी गाड़ियों की रोकथाम आदी उपाय जरूरी हैं
लेकिन खुद समाज को अपने स्तर पर बदलाव लाना ज्यादा जरूरी हैं।लड़के अपने
पारिवारिक माहौल से ही सब सीखते हैं।सीधे सीधे कोई अपने बच्चों को नहीं
समझाता।लेकिन इन चीजों पर बात होनी जरूरी हैं।माता पिता और खासकर पिता इस
तरह के मामलों और ऐसी ख़बरों पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं ये बच्चों के लिए
बहुत मायने रखता है।और यही आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती
है।लेकिन हमारे समाज में ऐसा नहीं होता पहली बात तो बच्चों से इन पर बात
ही नहीं की जाती ये सोचकर की बच्चों को ये बातें पता ही नहीं पड़नी
चाहिए।जबकि बचपन से ही लड़कों के मन में ये बात बिठाने की जरूरत है की ये
छेड़छाड़ आदी भी बलात्कार की ही तरह गलत है।यहाँ तक की कोई भी ऐसी बात जो
महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध हो उसका वहीँ तीव्र विरोध करना चाहिए।दुसरी
तरफ लड़कियों को भी डराने की बजाये सावधान रहना सिखाना चाहिए।उन्हें
आत्मरक्षा की ट्रेनिंग इसके बाद आती हैं।<br /> हालांकि इस
पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जा रहा है की क्या होना चाहिए और क्या
नहीं।लेकिन हम कई बार ये सोचकर निराश हो जाते हैं की ये सब बदलाव तो
धीरे धीरे होंगे और हम ज्यादा और सीधे तौर पर कुछ नहीं कर सकते।लेकिन एक
छोटा सा काम हम अभी और इसी वक्त से कर सकते हैं,वो ये की माँ बहिन बेटी
वाली जितनी गालियाँ समाज में प्रचलित हैं उनका और उन्हें बोलने वालों का
बहिष्कार करना।खुद तो इसका प्रयोग न ही करें लेकिन यदि कोई आपके सामने ऐसा
करता है तो कम से कम एक बार उसका विरोध जरूर करें चाहें वो आपका कितना ही
अजीज क्यों न हो।और फिर भी यदि कोई आदत नहीं सुधरता तो अपने स्तर पर उसका
बहिष्कार करें इससे होगा ये की वह व्यक्ति आपके सामने भले ही गलती न माने
लेकिन किसी अनजान के सामने उसकी प्रतिक्रिया को लेकर आशंकित जरूर होगा।मैं
ये बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं खुद ऐसा विरोध कर चूका हूँ।यहाँ तक की
एक बार तो अपने से तीन गुना उमर के एक परिचित बुजुर्ग का भी।और मैंने देखा
है की ये प्रयास खाली नहीं जाते।ज़रा सोचें की एक दुराचारी या एक बलात्कारी
को खुराक कहाँ से मिलती हैं।और ज़रा इन गालियों का मतलब क्या होता है इस पर
भी ध्यान दीजिये।क्या ये भी एक किस्म का बलात्कार ही नहीं है?इनसे कहीं न
कहीं ये मानसिकता बनती है की महिला बस एक वसतु है।जिस पर हम अपना गुस्सा
निकाल सकते हैं।लड़ाई चाहें किसी से भी हो लेकिन उसकी माँ बहन या बेटी के
शरीर को निशाना बनाना मतलब विजेता होना।जाहिर है यह सोच एक बलात्कारी में
से अपराधबोध को तो ख़त्म ही कर देगी।और यही काम तब भी होता है जब हम
बलात्कार और छेड़छाड़ के लिए लड़कियों को ही जिम्मेदार ठहराते हैं।जब उनके
कपड़ों के कारण उन्हें बदचलन कहते हैं।ये बातें हम जितनी जल्दी सीख लें
हमारे लिए उतना ही अच्छा हैं।वरना ध्यान रहे की यदि आप यही रवैया रखते हैं
जैसे बात बात में गलियों का प्रयोग या बलात्कार के लिए औरतों को ही
जिम्मेदार ठहराने वाली दलीलें तो आप भी एक तरह से बलात्कारियों को
प्रोत्साहित ही कर रहे हैं।अन्यथा फिर आपको दूसरों को दोष देने का कोई हक़
कम से कम नैतिक तौर पर तो नहीं रह जाता तब भी नहीं जबकि शिकार खुद आपके घर
की ही कोई महिला हो।<br /></div>
राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-64763278953569296032012-07-28T04:34:00.000-07:002012-07-28T04:34:18.353-07:00न हर जगह हिंसा चल सकती है न अहिंसा न नारीवाद<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<br />
गुवाहाटी छेडछाड प्रकरण के बाद महिलाओं के प्रति समाज का रवैया या उससे भी बढकर उनकी सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर से बीच बहस आ गया है.यूँ तो गुवाहाटी वाली घटना कोई अनोखी नहीं थी सिवाय इस बात के कि इसे भडकाने में वहाँ मौजूद पत्रकारों का भी हाथ था(वैसे इसका अंदाजा सभी को पहले से ही रहा होगा) जो कि इसे और गंभीर बना देती है लेकिन फिर भी इस घटना पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई वह महत्तवपूर्ण है.पहले इस विषय पर उतनी चर्चा नहीं होती थी लेकिन अब महिलाएँ पढने या नौकरी करने के लिए घर से बाहर निकल रही है जाहिर सी बात है सुरक्षा के सवाल और गहरे हो गए हैं.इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए लडकों की परवरिश में बुनियादी बदलाव तो जरूरी है ही लेकिन लडकियों को मानसिक व शारीरिक रुप से मजबूत बनाना भी उतना ही जरूरी है ताकि ऐसी कोई अनचाही स्थिति आने पर वह उसका मुकाबला डट कर कर सके.आत्मरक्षा के लिए कुछ हद तक हिंसा भी जायज़ है क्योंकि यह दूसरों को चोट पहुँचाने के लिए नहीं बल्कि खुद को बचाने के लिए है.लेकिन ब्लॉगजगत में कुछ पोस्टों पर हुए विवाद पर मुझे हैरानी हैं कि इसमें भी हिंसा बनाम अहिंसा वाला मुद्दा बीच में डाला जा रहा है.दरअसल आप जिस भी विचार वाद या सिद्धांत को मानते हो लेकिन आप चाहेंगे कि उसे हर जगह लागू किया जाए तो ये संभव नहीं है फिर चाहे वह हिंसा,अहिंसा नारीवाद या कोई भी 'वाद' हो.शीर्षक में जोडना संभव नहीं लेकिन बता दूँ कि मैं यह बात हर वाद के संदर्भ में कह रहा हूँ.क्योंकि लगभग हर वाद के समर्थक कई बार अतिवाद के शिकार हो जाते हैं.अभी कुछ दिन पहले एक वामपंथी लेखक का कोई लेख पढा जिसमें उन्होने 'कोलावेरी डी' गाने के हिट हो जाने को पूँजीवाद की विजय से जोड दिया ठीक इसी तरह अमिताभ बच्चन द्वारा गुजरात पर्यटन को बढावा दिए जाने के लिए किये जाने वाले विज्ञापनों के कारण उन्हें मोदी का समर्थक मान साम्प्रदायिक घोषित कर दिया.ये शायद सेकुलरवाद के लक्षण होंगे.कुछ कुछ ऐसा ही मुझे यहाँ हिंसा बनाम अहिंसा वाले मुद्दे को बीच में लाये जाने से लग रहा है और जोर देकर कहना चाहूँगा की मुझे ऐसा लग रहा है,हो सकता है की मैं ही बात को समझ नहीं पाया हूँ लेकिन जो लगता है उसे व्यक्त करना भी जरूरी समझता हूँ.<br />
अब एक बार बाकी बातों को छोडिये,एक उदाहरण रखना चाहूँगा।अभी कुछ समय पहले देश ने अग्नी-5 मिसाइल का परीक्षण किया था उस समय टी.वी. पर रक्षा विशेषज्ञ भरत वर्मा ने बहुत अच्छी बात कही की हम कोई युद्ध का वातावरण नहीं बना रहे बल्कि एक 'शक्ति संतुलन' बना रहे हैं ताकि हमारा शत्रु यदि हमसे ज्यादा शक्तिशाली है तो भी उसे हम पर हमला करने से पहले ये जरूर लगेगा की सामने वाला मुझे भी अच्छा ख़ासा नुक्सान पहुंचा सकता है और इसी कारण वह हम पर जल्दी से हमला नहीं करेगा. जब हमारे पड़ोसी देश अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं तो हम ये सोचकर नहीं बैठ सकते की हम बुद्ध या गांधी के देश के हैं और अहिंसा ही हमारा धर्म है.हमें एक शक्ति संतुलन स्थापित करना होगा और जवाबी हमले के लिए भी तैयार रहना होगा ताकी शत्रु देश हमें नुक्सान न पहुंचा सके.भरत वर्मा की बात से तो लगता है की आज के जमाने में तो यदी हम कमजोर हैं तो ही हम हिंसा या हिंसक माहौल को निमंत्रण देते हैं जबकि अपने आपको मजबूत बनाते हैं तो हिंसा के अवसर अपने आप कम हो जाते हैं.(वैसे मेरा तो मानना है की प्रत्यक्ष हिंसा से भी ज्यादा खतरनाक तो एक हिंसक माहौल या कहें दहशत भरा माहौल होता है,महिलाओं ही नहीं हम सबके लिए जरूरी है की हम खुद को इतना मजबूत बनाए की थोड़ी बहुत दहशत हो तो बुरे लोगों में ही हो ) इसलिए यदि महिलाओं को भी मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाया जाए तो शरारती तत्वों पर कुछ लगाम लग सकती है.हालांकि पूरी तरह तो नहीं पर छेड़छाड़ जैसी घटनाएं उतनी सामान्य नहीं रहेगी जितनी अभी है या उनकी गंभीरता कम हो जायेगी.कुछ नहीं से अच्छा है कुछ तो हो.वैसे कहने को तो और भी बातें कही जा सकती है की इस तरह की घटनाओं के लिए खुद महिलाओं लड़कियों या उनके कपड़ों को दोष न दिया जाए लेकिन उतना कोई मतलब नहीं है ये सब कहने का ज्यादा जरूरी है की महिलायें खुद ही ऐसी बातों पर धयान देना बंद कर दे.<br />
खैर ये तो बात हुई अहिंसा की कि हम हर जगह अहिंसा की नीति से ही समाधान नहीं पा सकते.लेकिन क्या हिंसा भी कोई समाधान है ?कई बार दो देश आपस में लड़ते हैं खूब खून खराबा होता है लकिन अंत में टेबल पर आकर समझौता करना पड़ता है इसी तरह परिवार के दो सदस्यों में ही कई बार सिर फुट्टवल की नौबत आ जाती है उस समय इनके पास भी अपनी अपनी हिंसा को जायज ठहराने के कारण रहे होंगे लेकिन बाद में दोनों को ही पछताते देखा जाता है.देखा जाये तो उद्देश्य तो सबका एक अहिंसक समाज का निर्माण ही हैं और महिलाएं तो खासतौर पर कभी नहीं चाहेंगी की समाज में हिंसा का वातावरण बने.लेकिन ये बात बुरे लोगों को समझ नहीं आती,जो शोषण करता है वह तो इसी बात पर सैडिस्टिक आनंद अनुभव करता है की हमसे कोई दब रहा है,डर रहा है.बल्कि हमारा विरोध न करना उनके हौसले बढाता ही है.यदी छेड़छाड़ करने वालों की ही बात करूँ तो महिलाओं के प्रति इस अपराध को ख़त्म करने के लिए ये जरूरी है की लड़कों की परवरिश इस तरह की जाये की वे महिलाओं को वास्तु न समझकर इंसान समझे लेकिन लिए समाज कितना तैयार है? और जब तक ऐसा हो उससे पहले उपाय क्या है? और वैसे भी कुछ बुरे लोग तो समाज में फिर भी रहेंगे ही.जाहिर है हमें और खासकर महिलाओं को अपने बचाव के लिए खुद को तैयार करना होगा भले ही कोई बुरा समय आने पर हिंसा का ही सहारा क्यों न लेना पड़े.<br />
आज मैं मानता हूँ की महिलाओं पर हाथ उठाना गलत बात है लेकिन यदि किसी महिला ने अचानक कभी मुझ पर चाकू से हमला कर दिया तब थोड़े ही मैं अपने किसी सिद्धांत से चिपका रहूंगा बल्कि उस समय तो मैं खुद को बचाने की ही कोशिश करूंगा और जरूरी हुआ तो उसे धक्का भी देना पड़े अब इस कारण उसे चोट लगती है तो लगे लेकिन इसे हिंसा को बढ़ावा देना या महिलाओं का अपमान करना कैसे माना जा सकता है.वैसे मैंने सुना है की जहां लड़कियों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता है वहाँ सबसे पहले ये ही सिखाया जाता है की ऐसी कोई स्तिथि आने पर लड़ने की बजाय जोर से चिल्लाना या भागना ही ज्यादा सही है.<br />
अब नारीवाद के बारे में ये ही कहूँगा की जब तक पुरुष का विरोध केवल और केवल इसलिए न किया जाए की पुरुष पुरुष है तब तक भी मुझे तो इसमें कुछ गलत नहीं लगता हाँ कई बार किसी के तरीके से जरूर असहमति हो सकती है पहले मैं इस बारे में कोई आपत्ति नहीं करता था पर आजकल कह देता हूँ.कई बार ऐसा भी होता है या कहूँ की मुझे ऐसा लगता है की एक गलत विरोध या गलत तरीके को भी सही बताकर नारीवाद से जोड़ दिया जाता है.मैंने कुछ समय पहले ऐसे लेख और टिप्पणियाँ भी पढी थी और कई लोगों को ऐसी बातें कहते सुना भी जिनमें उन पाकिस्तानी महिलाओं की बहादुरी के भी गीत गाये जा रहे थे जिन्होंने अपने बेवफा प्रेमियों पर तेज़ाब डाल दिया था.पाकिस्तान में इस तरह की कई घटनाएं एक के बाद एक सामने आई थी.लेकिन इन लड़कियों को भी चिंगारी,ज्वालामुखी और न जाने कौन कौनसी उपमाएं दी गई और साथ में पुरुषों को डरकर रहने की नसीहतें भी. और केवल महिलायें ही नहीं बल्कि कई पुरुष भी जोश में लग रहे थे.पर ये सब मुझे बिलकुल गलत लगा.और ऐसा करने से किसीको लग रहा है की पुरुष सुधर जाएगा तो ऐसा कुछ नहीं है.ये एक वर्ग के खिलाफ हिंसा को ही नहीं बल्कि बदला लेने की भावना को भी जस्टीफाई करना है.आत्मरक्षा के लिए हिंसा भी गलत नहीं है लेकिन बदला लेने को सही नहीं कहा जा सकता खासकर तब जब दूसरा विकल्प मौजूद हो.कल को लड़के भी लड़कियों पर तेज़ाब फेंकने वाली घटनाओं को सही बताने लगें तो किस तर्क से उन्हें गलत साबित किया जाएगा? ऐसा करने से तो जो स्त्री पुरुष अभी सही है वो भी एक दुसरे से बदला लेने की ही सोचने लगेंगे और इसके लिए उनमें कोई अपराधबोध भी नहीं होगा.इसलिए ऐसे उदाहरणों को नारीवाद या नारी सशक्तिकरण से जोड़ना सही नहीं मानता बाकी ख़याल अपना अपना.<br />
और अब मुद्दे से थोडा हटकर एक बात की सभी पुरुष भी महिलाओं की विरोध वाली बात से चिढ़ते ही हो ये जरूरी नहीं 'चक दे इंडिया' सभी ने देखी होगी फिल्म का टर्निंग पॉइंट है वह सीन जब लडकियां उन लड़कों की पिटाई कर देती है जिन्होंने उनके साथ छेड़छाड़ की थी या उन्हें अपमानित किया था.आज भी केवल लडकियां ही नहीं लड़कों को भी ये सीन जोश से भर देता है.और मैं खुद इस फिल्म को देखने तभी गया था जब अपने साथ के लड़कों से इस फिल्म और खासकर इस दृश्य की प्रशंसा सुनी.वहाँ माहौल देखकर लगा नहीं कि पुरुष इसे पुरुष के विरोध में ले रहे हैं क्या इस बात का भी कोई सामजिक विश्लेषण संभव है?लेकिन हाँ ज्यादातर की मानसिकता अभी भी वही है की दोष तो लडकी के करेक्टर का या कपड़ों का ही होगा.अभी निकट भविष्य में तो लगता नहीं की ये मानसिकता जाने वाली है.<br />
और चलते चलते शीर्षक के बारे में भी बता दूं की जब मैं ये शीर्षक सोच रहा था तब मुझे लग रहा था की कहीं इससे दूसरों को ये न लगे की मैं दूसरों को कुछ सिखाने की कोशिश कर रहा हूँ या खुद को बहुत प्रगतिशील समझ रहा हूँ हो सकता है आपको ऐसा कुछ लगे भी.लेकिन ऐसा है नहीं. पोस्ट का शीर्षक ये इसलिए रखा ताकि पोस्ट की बात इसमें सिमट जाए.बाकी स्थिर मानसिकता होने या बिलकुल सही होने का दावा मेरा कभी नहीं रहा.इस मंच को केवल अपने विचार व्यक्त करने और दूसरों को समझने का जरिया भर मानता हूँ।इस विषय पर पोस्ट इसलिए लिखी क्योंकि जब जब कुछ दिनों से मैं ब्लॉगजगत से दूर था उस दौरान कई ऐसी पोस्ट्स आई जो अब समय मिलने पर पढी लेकिन सब जगह टिप्पणियां देना संभव न था सोचा पोस्ट ही लिख दी जाए.<br />
<div><br class="Apple-interchange-newline" /></div></div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-35144058464835555852012-04-29T06:37:00.002-07:002012-04-29T06:37:48.846-07:00अश्लीलता:खुद महिलाओं का नजरिया क्या हैं?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
यह तब की बात हैं जब मल्लिका शेरावत फिल्मों में आई ही थी.उनकी एक फिल्म के सेट
पर उनसे किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या आपको नहीं लगता कि फिल्मों में टू पीस बिकनी
पहनना अश्लीलता को बढावा देना हैं,इसके जवाब में मल्लिका ने कहा कि आप मुझसे क्या
पूछ रहे हैं उस हीरो से जाकर क्यों नहीं पूछते उसने तो वन पीस ही पहन रखा हैं.जाहिर
सी बात हैं इस जवाब के बाद उस पत्रकार के पास पूछने के लिए कुछ नहीं रह गया
था.मल्लिका का ये बयान उस समय बहुत चर्चा में रहा था.तब बहुतों को लगा होगा कि
मल्लिका एक बोल्ड विचारों वाली आधुनिक महिला हैं. लेकिन इसके कुछ समय के बाद उनकी
एक फिल्म मर्डर की शूटिंग चल रही थी इसके लिए मल्लिका को एक टॉपलेस दृश्य देना था
जिसके लिए निर्माता महेश भट्ट ने उनकी स्वीकृति पहले ही प्राप्त कर ली थी.लेकिन जिस
दिन ये दृश्य शूट किया जाना था तभी ऐन वक्त पर मल्लिका ने ऐसा करने से मना कर
दिया.बाद में जब उनसे इसके बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था कि हाँ पहले मैं ऐसा
दृश्य करने वाली थी लेकिन कहीं न कहीं मुझमें भी वही साधारण और पारंपरिक भारतीय
लडकी बैठी हुई हैं जिसने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.यानी कि जो महिला अंग प्रदर्शन
जैसे विषय पर भी समानता को लेकर इतने बोल्ड विचार रखती हो उस पर भी समाज की ही
एकतरफा सोच हावी हैं वर्ना देखा जाए तो पुरुषों द्वारा भी तो टॉपलेस दृश्य करना आम
बात हैं शायद ही किसी अभिनेता को इसमें झिझक महसूस हुई हों क्योंकि संस्कारों को
कायम रखने की अपेक्षा समाज ज्यादातर महिला से ही करता हैं.<br />
एक बार विद्रोही लेखिका तसलीमा नसरीन ने भी अपने किसी लेख में कहा था की मैं बचपन
में शुरू से ही सोचा करती थी की जिस तरह मेरा भाई घर में आजादी से रह सकता वैसा मैं
क्यों नहीं कर सकती,जिस तरह वह घर में बिना बनियान के केवल निकर में घूम सकता है
वैसी आजादी मुझे क्यों नहीं है.क्या सिर्फ इसलिए की मेरी शारीरिक संरचना थोड़ी अलग
है?जब मैंने पहली बार ये पढ़ा तो मैं कई देर तक सोच में पड़ गया क्योंकि देखा जाए तो
तसलीमा ने ऐसी कोई अनोखी बात नहीं कही लेकिन इस तरफ हमारा ध्यान क्यों नहीं
जाता?ये कितनी स्वाभाविक सी बात है हमें गर्मी लगी तो कुछ देर के लिए शर्ट उतार ली
लेकिन यही काम यदी महिला भी कर ले तो कौनसा आसमान टूट पडेगा? लेकिन सच तो ये है की
हमारे लिए ऐसे किसी दृश्य की कल्पना करना भी बहुत भयानक है और पुरुष ही क्या खुद
महिला भी ये नहीं सोच सकती की वह अपने ही घर में ही अपने पिता या भाई के सामने
गर्मी से बचने के लिए ऐसा कोई जतन करे.लेकिन महिलाओं पर ही आपत्ति क्यों?शायद इसलिए
की हमें पुरुषों को ऐसा करते देख देखकर आदत पड़ गई है या शायद इसलिए की पुरुष
महिलाओं को अपनी तरह से बेफिक्र रहते देखना ही नहीं चाहते.मुझे लगता है <span id="6_TRN_1pd">की</span> दोनों
बातें सही हैं.यदि हम भी शुरू से ही महिलाओं को पुरुषों की तरह ही ये सब करते देखते
तो हमें कुछ भी गलत नहीं लगता और न महिलाओं के छोटे कपडे पहनने या बिना ऊपर का
वस्त्र पहने घर में घूमने को अनैतिक समझा जाता.<br /> लेकिन ऐसा भी
नहीं है की केवल भारतीय समाज में ही ऐसा दोहरा रवैया देखने को मिलता हो बल्कि खुद
आधुनिक समझा जाने वाला पश्चिमी समाज भी इससे पूरी तरह तो मुक्त नहीं ही हैं.तभी
वहाँ भी गो टोपलेस या slutwalk जैसे मूवमेंट्स होते रहते हैं.लेकिन इतना जरूर है की
वहाँ पर हमारी तुलना में उनके पास महिलाओं के कपड़ों के अलावा चिंता करने के लिए और
भी विषय हैं.वहाँ पर महिलाओं से छेड़छाड़ और उनकी तरफ घूरना आदी कम होता हैं और
महिलाएं भी शायद उतना असहज महसूस नहीं करती जितना हमारे यहाँ.और न ही महिलाओं के
साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए उनके कपड़ों को उतना जिम्मेदार ठहराया जाता है
जितना हमारे यहाँ.शायद इसका कारण ये है की वहाँ पुरुष महिलाओं को पहले से ही छोटे
कपड़ों में घुमते स्विमिंग पूल किनारे धुप सेंकते देखते रहे हैं इसलिए उनके लिए यह
कोई कौतूहूल का विषय नहीं है,बल्कि भारत में भी कई आदिवासी जातियों में महिलायें
नाम मात्र के ही वस्त्र पहनती हैं.वहाँ पुरुषों को स्त्री शरीर के उभारों और कटावों
को लेकर कोई उत्सुकता नहीं हैं यहाँ तक की स्तनों को भी बच्चे को दूध पिलाने के काम
आने वाले अंग से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता.वहाँ छेड़छाड़ या बलात्कार जैसे
अपराधों के बारे में भी कभी नहीं सुना जाता.यानी कपडे कोई कारण नहीं है जबकि
मुख्यधारा के समाज में कपड़ों को लेकर ही सबसे ज्यादा हाय तौबा मचाई जाती
हैं.<br /> सवाल यही है की महिलाओं के कपडे ही हमारे
लिए इतने महत्तवपूर्ण क्यों हैं की उनके आधार पर ही उनको चरित्र प्रमाण पत्र दिया
जाता है जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई मापदंड कभी नहीं रहा?एक बात और नहीं समझ आती
की केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही स्त्री अशिष्ट रुपण अधिनियम जैसा कानून क्यों
बना हुआ हैं?क्या हम मानकर चल रहे हैं की गरीमा सिर्फ महिलाओं की ही होती है जिसे
बचाए जाने की बहुत जरूरत हैं?तो फिर यदी पुरुष भी केवल महिलाओं के ही अंग प्रदर्शन
पर ही उंगली उठाते हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा,कैसी आपत्ति? क्योंकि वो तो पहले से
ही केवल महिलाओं पर ही मर्यादा,इज्जत आदी भारी भरकम शब्द लादकर मनमानी करते आये
हैं.मेरा उद्देश्य किसी कानून या मान्यता को गलत ठहराने का नहीं है लेकिन मैं जानना
चाहता हूँ की ऐसा क्यों हैं.<br />
अभी हाल ही में एक अदालत ने फिल्म हेट स्टोरी के पोस्टरों को
अश्लील बताकर बैन करवा दिया था.यहाँ ब्लॉग पर भी एक पोस्ट में इसी फिल्म के एक
पोस्टर पर कईयों ने आपत्ति की थी की यह पोस्टर अश्लील हैं.इस पोस्टर में नायिका
की पीठ को पूर्णतः निर्वस्त्र दिखाया गया था.मैं मानता हूँ की इस पोस्ट में ऐसी
तस्वीर की कोई जरूरत नहीं थी वैसे भी यहाँ नेट पर बहत से बच्चे भी आते हैं अतः ऐसा
करने से बचना चाहिए क्योंकि हर चीज के लिए एक सही उम्र होती हैं.लेकिन मैं इस बात
पर दुविधा में हूँ की इस तस्वीर को अश्लील माना जाए या नहीं.क्योंकि बहुत से पुरुष
कलाकारों की भी तो ऐसी तस्वीरें छपती रहती हैं जिसमें पीठ क्या सीना भी नग्न दिखाया
जाता हैं.यदी सलमान की कोई बिना शर्ट वाली तस्वीर वहाँ पोस्ट में डाल दी जाती तो
क्या हमें वह भी अश्लील लगती?ये बात ठीक है की कई ब्लॉगर दूसरों का ध्यान खींचने के
लिए भी इस तरह की तस्वीरें पोस्ट में डाल देते हैं उनका विरोध होना चाहिए लेकिन ये
कैसे तय किया जाएगा की कौनसी तस्वीर या द्रश्य अश्लील हैं और कौनसा नहीं?हाँ
पब्लिसिटी के लिए कोई ऐसा करता है तो उसका विरोध होना चाहिये.<br />
इसी तरह 'इण्डिया टुडे' के नवीनतम अंक में कवर स्टोरी पर
भी बवाल मचा हुआ हैं जिसके मुख प्रष्ठ पर एक तस्वीर छापी हैं जिसमें एक महिला अपने
हाथों से अपने अनावृत वक्ष को छुपाये हुए हैं.कवर स्टोरी भारतीय महिलाओं में
सौन्दर्य की चाह में ब्रेस्ट सर्जरी के बढ़ते चलन को लेकर हैं.और शीर्षक 'उभार की
सनक' जैसा कुछ दिया गया हैं.कई लोगों को आवरण प्रष्ठ पर दिए गए चित्र पर आपत्ति है
परन्तु मुझे तो इसमें कुछ ख़ास बात बात नही लगी.यदी शीर्षक ही ऐसा है तो चित्र किसी
गुलदस्ते या इन्द्रधनुष का तो होने से रहा.पर एक बार मान लीजिये की आवरण कथा लड़कों
में डोल्ले शोले बनाने ले लिए जिम जाने के बढ़ती प्रवृति को लेकर होती और कवर पृष्ठ
पर जोन अब्राहिम की मांसपेशियां दिखाती कोई तस्वीर होती तो क्या उस पर भी हंगामा
मचता ? जोन को तो तब अपना सीना छुपाने की भी जरुरत नहीं पड़ती.<br />
पुरुष यदी महिलाओं के चित्रों आदी पर आपत्ति करता हैं तो माना
जा सकता है की वह खुद अपने को बंधन मुक्त रख महिलाओं को संस्कारों के नाम पर
बांधें रखना चाहता हैं.ताकि महिलाओं को खुद अपने बारे में सोचने की ही फुर्सत न
मिलें.लेकिन खुद महिलायें और खासकर वो महिलायें जो समानता जैसे मूल्यों में विश्वास
रखती हैं और पित्रसत्ता की बारीक बुनावट को भी समझती हैं वो इस बारे में क्या
सोचती हैं?क्या उन्हें भी सलमान,जोन या शाहिद की बजाय केवल महिलाओं की ही ऐसी
तस्वीरें अश्लील लगती हैं?कहीं ऐसा तो नहीं की ये महिलायें भी किसी दूसरी महिला को
कम कपडे या बिकिनी जैसे परिधानों में देखकर ये तो नहीं सोचती की ये महिलायें
उनकी(स्त्रियों की) गरीमा को कम कर रही हैं?इसके लिए मुझे तमाम महिलायें माफ़ करें
लेकिन कभी कभी मुझे लगता है की महिलाओं को भी अपनी उस पारंपरिक और लगभग पवित्र छवि
से मोह हो गया है जो उनके लिए कभी पुरुषों ने गढ़ी थी जबकि वो खुद ही ये भी कहती
हैं की कपडे कोई मापदंड नहीं होना चाहिए.पुरुषों का बचना तो मुश्किल हैं ही लेकिन
सच तो ये हैं की खुद महिलायें भी इन सवालों से बच नहीं सकती बल्कि ये सवाल उनके सर
पर भी भूत बनकर नाचते रहेंगे.नहीं.... मैं किसी की सोच को गलत नहीं बता रहा हूँ और
न ही मुझे इसका कोई हक़ है लेकिन जानना चाहता हूँ की इसके पीछे कारण क्या हैं और
मेरा सोच गलत हैं तो आप कृपया मुझे सही करें वैसे भी यहाँ किसीकी सोच या निर्णय
अंतिम कहाँ होता हैं.<br />
महिलायें कह सकती हैं की अंग प्रदर्शन करने वाली महिलाओं की
बजाय वे पुरुषों की भोगी व वासनात्मक प्रवर्ति का विरोध करती हैं.यदि ऐसा हैं तो ये
बात अच्छे अन्न की भांति सराहनीय हैं.ऐसा होना चाहिए और शायद हो भी रहा है लेकिन एक
बार सवाल फिर से दोहरा दूं की इसके लिए उन चित्रों को अश्लील क्यों कहा जाए?यहाँ तो
दोष पुरुष की दृष्टी का हैं लेकिन क्या चित्र को अश्लील बताकर या खुद महिला पर ही
उंगली उठाकर हम उन्हीं पुरुषों का ही तो पक्ष मजबूत नहीं कर रहे जो समाज में महिला
के प्रति बढ़ते छेड़छाड़ या बलात्कार जैसे अपराधों के लिए महिलाओं द्वारा अंग
प्रदर्शन को ही जिम्मेदार ठहराते हैं.<br /> और जहां तक बात
हैं पुरुषों द्वारा आपत्ति का सवाल है की कोई मल्लिका या पूनम पाण्डेय स्त्री की
गरीमा को कम कर रही हैं या इनकी वजह से महिलाओं का सम्मान कम हो जायेगा तो उन्हें
भी ये सोचना चाहिए की ग्लेमर जगत में इमरान हाशमी से लेकर सलमान या मिका तक सभी ये
ही तो कर रहे हैं तो क्या इनकी वजह से महिलाओं ने हमारा सम्मान करना बंद कर दिया
फिर कुछ महिलाएं भी यही सब कर रही हैं तो इससे हमें क्यों फर्क पड़ना चाहिए और हम
उन्हें महत्त्वा ही क्यों दें?<br />
और वैसे भी जहाँ महिलायें घूंघट या बुर्के में रहती हैं वहाँ
क्या उनका बहुत सम्मान किया जाता हैं और क्या उन्हें वहाँ बराबरी के सारे अधिकार
हासिल हैं?ये सब भी तो महिलाएं करके देख चुकी हैं लेकिन सच तो ये है की सम्मान तब
होगा जब पुरुष मन से ऐसा चाहेंगे वरना महिलायें कुछ भी कर लें पुरुषों की सोच
महिलाओं को लेकर नहीं बदलने वाली.फिलहाल तो सबसे ज्यादा जरूरी यही है की कोई कैसे
कपडे पहने या कैसे नहीं और कितना शरीर दिखाए या कितना नहीं इसमें किसी दुसरे का
हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.शरीर जिसका है वही इसके बारे में तय करें.समय के साथ कई
चीजों को लेकर सोच बदलती रहती हैं जैसे कुछ साल पहले तक किसी महिला के स्लीवलेस
कुर्ता या जींस आदी पहनने पर ही दूसरों की नजरें टेढ़ी हो जाती थी खुद महिला भी
भीड़ में असहज महसूस करती थी पर अब ऐसा कम ही होता है या होता ही नहीं हैं.पता नहीं
कितना सही हैं लेकिन कई जगह पढ़ा है की अंग्रेजों के आने से कुछ समय पहले तक भारत
में कई जगहों पर स्त्री और पुरुष ऊपर का वस्त्र पहनते ही नहीं थे.यदि ऐसा है तो आज
ये हालत कैसे हो गई की महिलाओं के कपडे ही हमारे लिए उनके चरित्र का पैमाना बन
गए?<br />
<span style="color: blue;"><b>जेम्स बोंड महिला विरोधी हैं?</b></span><br />
कई लोगों का मानना है की जेम्स बोंड का किरदार महिला विरोधी हैं.यहाँ तक की
होलीवुड की कई नायिकाएं भी इसी कारण जेम्स बोंड की फिल्मों में काम करने से मना कर
चुकी है.क्योंकि उनका मानना है की जेम्स बोंड को महिलाओं के जज्बातों की क़द्र नहीं
हैं वह अपने काम निकलने के लिए उन्हें मोहरा बनता हैं और फिर उनसे किनारा कर लेता
हैं यहाँ तक की वह अलग अलग देशों में जाता है और अपने अहम् की संतुष्टी के लिए कई
महिलाओं के साथ बेड साझा करता हैं.लेकिन मुझे ये नहीं समझ आता की हम शारीरिक
संबंधों जिनमे महिला और पुरुष की बराबर की भागीदारी होती हैं वहाँ भी हमेशा पुरुष
को शिकारी और महिला को शिकार के रूप में ही क्यों देखते हैं?यही काम तो लारा
क्राफ्ट या चार्लीज़ एंजेल्स जैसी फिल्मों में नायिकाएं भी तो करती हैं लेकिन
पुरुषों को तो ये शिकायत नहीं होती की उनका इस्तेमाल हो रहा है.कुछ लोग यहाँ छुरी
या खरबूजे वाली मिसाल दे सकते हैं लेकिन मैं यही जानना चाहता हूँ की स्त्री को हम
खरबूजा ही क्यों मान रहे हैं.इसके अलावा जेम्स बोंड की बोस ही एक महिला है जिसका
नाम ऍम हैं और उसके आदेश के बिना जेम्स बोंड कुछ नहीं कर सकता और उसे लगभग हर फिल्म
में अपनी ही नायिकाओं से पिटाई खाते हुए भी दिखाया जाता है फिर भी उसे महिला
विरोधी क्यों कहा जाए या हमारी आदत ही हो गई है स्त्री को हर बार इतना कमजोर मानने
की जैसे कोई भी पुरुष उसका इस्तेमाल कर सकता है?<br />
<br />
</div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-15265021581128075152012-03-28T02:55:00.000-07:002012-03-28T02:55:45.139-07:00क्या हम मुसलमानों को आतंकवादी समझते हैं ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">यह <span id="6_TRN_1p">सवाल </span>कोई पहली बार मन में आया हो ऐसा नहीं हैं बल्कि कई मौकों पर जब मुस्लिमों के प्रति भेदभाव या उन्हें मुख्यधारा में लाने की बात की जाती है तब ये बात अक्सर उठाई जाती है की मुस्लिमों को आतंकवादी क्यों समझा जाता है या उन पर शक क्यों किया जाता हैं.किसी आतंकवादी घटना या बम ब्लास्ट आदी के बाद तो अक्सर कई लोगों द्वारा पहले ही अपील की जाने <span> लगती है की पूरी कौम को बदनाम </span><span> मत कीजिये या आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता आदी आदी.परन्तु क्या सचमुच हम ऐसी घटनाओं के बाद मुस्लिमों पर शक करना शुरू कर देते हैं या उन्हें आतंकी ही मानने लगते हैं?</span><br />
कुछ लोग सचमुच ऐसा करते होंगे पर पता नहीं क्यों मुझे हमेशा लगता है की ये बातें कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर की जाती है इस हद्द तक की मुस्लिम समाज खुद को सचमुच असुरक्षित महसूस करने लगे.वैसे आज हिन्दू मुस्लिम कोई बहुत प्रेम से भले ही न रह रहे हों लेकिन ये भी सच है की अब ये कुछ ख़ास लड़ भी नहीं रहे है बल्कि पहले की अपेक्षा अब दूरियां कम ही हुई हैं.देखा जाए तो अब सभी साथ खाते पीते,उठते बैठते और काम धंधा करते हैं.हिन्दू हों या मुस्लिम दोनों ने ही अब धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को भाव देना बंद कर दिया हैं.भाजपा को उग्र हिंदुत्व का रास्ता छोड़ना पड़ा है,संघ अपने घटते स्वयंसेवकों की वजह से चिंतित है तो वहीँ मुस्लिमों ने भी तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों की बजाय विकास की बात करने वालों को तरजीह देना शुरू कर दिया है.हालिया उत्तर प्रदेह विधानसभा चुनावों में मुस्लिम आरक्षण या बाटला हाउस एनकाउन्टर जैसे मामले उठाकर मुस्लिमों की सहानुभूति(<span id="6_TRN_be">और वोट भी) बटोरने के कांग्रेस प्रयासों पर वहाँ के मुसलामानों ने पानी फेर दिया हैं.और ये सब एक तरह से लोकतंत्र के लिहाज से अच्छा ही है.लेकिन फिर भी ये बात तो सच है की मुस्लिमों के साथ विभिन्न स्तरों पर भेदभाव होता है और खूब होता है.लेकिन क्या ऐसा केवल उनके मुसलमान होने की वजह से ही है या ये सब क्या केवल <span id="6_TRN_do">मुसलमान</span></span><span> ही सह रहे हैं?मुझे लगता है की इस तरह के भेदभाव के शिकार और भी बहुत से लोग हैं न की केवल मुसलमान.और मुझे नहीं लगता की मुसलामानों के साथ भेदभाव केवल उनके अलग धर्म के कारण हो रहा है,फिर चाहे वह पुलिस द्वारा निर्दोषों को सताने की बात हो या बैंकों द्वारा खाता खोलने या ऋण देने में आनाकानी करने की बात हों या मुस्लिमों को किराए पर मकान या कमरा देने से मना करने का मसला हो.</span><br />
<span> पहली बात तो ये की आम गैर मुस्लिम भारतीय मुसलामानों को आतंकवादी नहीं <span id="6_TRN_gn">मानता है.हाँ कुछ लोग गलत हैं जो की कहीं </span></span><span><span> भी हो सकते है खुद मुस्लिमों में बहुत से ऐसे होंगे जो दूसरों से नफरत करते होंगे या उन्हें काफिर मानते होंगे.जहाँ तक बात है मुसलामानों को आतंकी बताने की तो मेरे <span id="6_TRN_h2">ख़याल </span> से किसीको आतंकी क</span></span><span>हने या कट्टरवादी कहने में बहुत फर्क है.कुछ इस्लामिक रिवाजों और उनके कठोरता से पालन के कारण मुस्लिमों को कट्टर समझा जाता है न की आतंकी.आमतौर पे मुस्लिमों के बारे में लोगों की ये धारणा रहती है की वो धर्म को हर मामले में पहले ही रखते है जो की मेरे हिसाब से पूरी तरह गलत भी नहीं हैं.आप कह सकते हैं की कुछ और समुदाय भी <span id="6_TRN_ja">धा</span></span><span>र्मिक रिवाजों का कठोरता से ही पालन करते हैं जैसे की जैन धर्म को मानने वाले लोग नियम कायदों के पक्के होते हैं.लेकिन मुसलामानों में</span><span> बुरका,खतना,पांच बार नमाज,रोजे,मांसाहार यहाँ तक की कुछ त्योहारों पर घर पे ही जानवरों को हलाल करने आदि कुछ बातें ऐसी हैं जो उनकी एक कट्टर छवि ही पेश करते हैं (लेकिन स्पष्ट करना चाहूँगा की यहाँ मैं रिवाजों के सही या गलत होने की बात नहीं कर रहा हूँ,वो एक अलग मसला है).यही कारन है की मुस्लिमों की छवि ही ऐसी बन गई है.लेकिन ये भी सच है की जैसे जैसे मुस्लिम आगे आ रहे है उनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी बदल रहा है.</span><br />
<span> फिर भी यदि कोई मुस्लिमों को समझने या </span><span>उनके प्रति सोच बदलने या स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने का आह्वान करता है तो मुझे भावना के <span id="6_TRN_nj"><span id="6_TRN_nl"><span id="6_TRN_nm">स्तर</span></span> पर कोई असहमति नहीं है वरन समर्थन है लेकिन ये इस तरह से न हो की सामने वाला खुद को उपेक्षित समझने लगे और दूसरों को अपना दुश्मन.जबकि आमतौर पर खुद मुस्लिम ऐसा तरीका नहीं अपनाते.</span></span><br />
<span> अभी एक मामला सामने आया है.दिल्ली में इस्रायली दूतावास की कार में विस्फोट के मामले में एक पत्रकार सैयद मोहम्मद काजमी को गिरफ्तार किया गया है.वहीं कुछ अति उत्साही धर्मनिरपेक्षतावादियों ने </span><span>पहले ही पुलिस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया हैं की काजमी को बेवजह परेशान किया जा रहा है.हालांकि जिस तरह की ख़बरें मीडिया में आई है उससे ये मानना मुश्किल है की काजमी बेकसूर है.वहीं उनका पक्ष लेने वालों ने कोई ठोस कारण भी नहीं दीया जिससे लगे की पुलिस यहाँ गलत है.खैर होने को कुछ भी हो सकता है देखते है आगे क्या होता है.लेकिन फिर भी मेरा इस बात से कोई इनकार नहीं है की पुलिस में बहुत से ऐसे लोग है जो मुसलामानों </span><span>के प्रति दुराग्रह रखते है और कई बेक़सूर मुसलामानों को सताया भी जाता है जांच के नाम पर.लेकिन फिर सवाल ये ही है की पुलिस किसकी सगी है?उसे तो कई बार ये दिखाना ही होता है की देखो काम हो रहा है फिर चाहे निर्दोषों को ही गिरफ्तार क्यों न करना पड़े.इफ्तिखार गिलानी,सीमा आजाद और उनके पति से लेकर विनायक सेन तक लम्बी लिस्ट है.जरा नक्सलवाद और माओवाद प्रभा</span><span>वित इलाकों में जाकर देखा जाए की पुलिस निरीह आदिवासियों के साथ कैसे पेश आती है.यही नहीं दिल्ली,राजस्थान और म.प. जैसे राज्यों में कई इलाके ऐसे हैं जिन्हें अब 'मिनी बिहार' <span id="6_TRN_1yz"><span id="6_TRN_1z0"><span id="6_TRN_1z1"><span id="6_TRN_1z2">कहा जाने </span></span></span></span></span><br />
<span><span><span><span><span> लगा</span></span></span></span> है क्योंकि यहाँ बिहार और उड़ीसा से आये मजदूर बहुत बड़ी संख्या में रहने लगे है.इन इलाकों के आस पास कोई चोरी या हत्या की घटना होती है तो पुलिस किसी भी बिहारी को शक के आधार पर ही </span>थाने ले जाती है और प्रताड़ित करती है.गाँव में दलितों के साथ पुलिस क्या करती है बताने की जरुरत नहीं.ये लोग भी अपमानित होने के बाद कुछ नहीं कर पाते.न जाने अब तक कितने लेखक,पत्रकार,सामजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस ने झूठे आरोप लगाकर फंसाया है.ये मामला पुलिस के चरित्र का है.पुलिस सभी के लिए उतनी ही बुरी और असंवेदनशील है न की सिर्फ मुसलामानों के लिए.और कुछ आतंकी घटनाओं में हिन्दू आतंकी भी पकड़ में आये हैं.जाहिर सी बात है इसके लिए दूसरों से भी पूछताछ की गई होगी उन पर भी शक किया गया होगा.<br />
बैंकों परे भी आरोप लगाया जाता है की मुस्लिमों के खाते खोलने और उन्हें ऋण दिने में आनाकानी करते है.ये बात एकदम से हजम होने वाली नहीं है अगर मुसलमानों को बात इस तरीके से कही जाये तो क्यों न उनको लगे की हमसे भेदभाव बरता जाता है.बैंक और खासकर निजी बैंक तो अपने व्यावसायिक हितों को ही सबसे ऊपर रखते है.फिर उन्हें ग्राहक के धर्म से क्या लेना देना?हो सकता है कई बार मुस्लिम इस्लामिक उसूलों में आस्था के कारण ब्याज वाला कोई लाभ न लेना चाहते हों और इसी कारण खाता खुलवाने या बैंक की दूसरी योजनाओं क लाभ लेने के लिए वो स्वयं आगे न आते हों?वहीं लोन तो किसीका भी अस्वीकृत हो सकता है जैसा की ये बात तो बैंक खुद मानते है की कमजोर आर्थिक <span id="6_TRN_13z"><span id="6_TRN_140">स्थिति</span></span> के चलते कई बार मुसलामानों को भी ऋण देने से मना कर दिया जाता है जो की किसाथ भी हो सकता है बल्कि कई बार तो अच्छी आर्थिक स्थिति के बावजूद ऍफ़.आई. नेगेटिव हो जाती है.धर्म इसमें क्या करेगा?फीर भी हो सकता हैं गाँव में कुछ सरकारी बैंक मुसलामानों से भेदभाव करते हो लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव है के गाँव में हर क्षेत्र में दलितों के साथ कही ज्यादा भेदभाव होता है जबकि मुसलामानों के साथ एक दूरी तो बरती जाती है पर भेदभाव उतना नहीं होता.यहाँ तक की एक स्वर्ण और मुसलमान एक दुसरे के शादी जैसे अवसरों पर भी आते जाते हैं जबकि दलितों को अडने ही नहीं दिया जाता स्कूलों में भी दलितों के बच्चों के साथ ज्यादा दुर्व्यवहार किया जाता है.<br />
एक बार और अक्सर सूनी जाती है की मुसलामानों को कमरा किराये पर नहीं दिया जाता है.तो भाई इसका कारण भी केवल दुसरे धर्म क होना ही नहीं है.यहाँ तो कई बार एक ब्रह्मण राजपूत को रूम नहीं देता है तो कई बार राजस्थानी किसी बंगाली को किराये पर नहीं रखता.बताइए क्या किया जाए?....कई खुद मुस्लिम ये चाहते है की किसी मुस्लिम के घर या मुस्लिम बस्ती में ही रहा जाए.कई परिवार तो ऐसे है जो सिर्फ मांसाहारी होने की वजह से किसीको भी किराये पर नहीं रखते.ऐसा नहीं है की केवल आतंकवादी समझकर ही रूम नहीं दिया जैसा की कई लोगों द्वारा प्रचारित किया जाता है.वहीं बहुत से लोग ऐसे भी है जिन्हें मुस्लिमों को किराये पर रखने में कोई दिक्कत नहीं होती जिनमें से एक हम भी हैं.इसलिए सच केवल उतना ही नहीं हैं जितना की बताया जा रहा हैं.<br />
<span style="color: blue;"><strong>कश्मीरियों क दर्द नहीं समझते?</strong></span><br />
इस विषय को भी धर्म के चश्मे से ही देखा(और दिखाया भी) जाता है.मैं इस बात से सहमत हूँ की हम कश्मीरियों के प्रति असंवेदनशील हैं जबकि उन्हें सैनिक शाशन में रहना पड़ रहा है जहाँ आये दिन कर्फ्यू लगा रहता है.लेकिन क्या इसका कारण अधिकाँश कश्मीरी जनता का<span> मुस्लिम होना है?और हम किसके प्रति संवेदनशील है?पूर्वोत्तर के लोगों,महाराष्ट्र के आत्महत्या को मजबूर किसानों,बुंदेलखंड के सूखा प्रभावित लोगों में से किसके प्रति हमने विशेष सहानुभूति दिखाई है?भारत की ज्यादातर जनता खासकर युवा कश्मीर को केवल उसी रूप में जानते है जैसा की फिल्मों में दिखाया जाता हैं जहाँ हीरो हेरोइने </span>पिकनिक मनाने जाते हैं और बर्फ से खेलते हैं,गाना गाते है.इसके अलावा बस उन्हें ये पता है की पकिस्तान वहां आतंकियों को भेजता रहता है जिनसे सेना को निपटना होता है.इसके अलावा न उन्हें कश्मीरियों से विशेष लगाव है(या नफरत है) और न ही कश्मीरी पंडितों से.हां धर्म की राजनीति करने वालों की बात अलग हैं.<br />
बहुत से कश्मीरी आज भी देश के अलग अलग कोनों में रह रहे हैं जिनमें ज्यादातर युवा हैं,कुछ पढ़ाई करते हैं,कुछ छोटी मोटी नौकरी करते हैं तो कुछ कश्मीरी शॉल आदी बेचने क काम करते हैं .कई कश्मीरी फ़ौजी और उनके रिश्तेदार सिविल में किराये पर रूम लेकर रह रहे हैं यहाँ तक की दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में तो बहुत से कश्मीरी लड़के व्यावसायिक परिसरों में सिक्योरिटी गार्ड तक लगे हुए हैं.क्या हमने इन्हें आतंकी कहकर और मार मार कर भगा दिया?क्या हम इन पर विश्वास नहीं करते?लेकिन वहाँ तो काश्मिरी युवाओं को ये बताया जा रहा है की तुम बाहर कमाने जाओगे तो तुम्हे आतंकवादी बता दिया जाएगा,लोग तुम्हें मारेंगे.अब ऐसे में नफरत पैदा नहीं होगी तो और क्या होगा?इसमें हमारे साथी वामपंथी <span id="6_TRN_1nn"><span id="6_TRN_1no">सबसे </span></span> आगे हैं(जो हुसैन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तो वकालत करते हैं पर तसलीमा के लेखन के 'बाज़ार पक्ष' पर गौर करने की सलाह मुफ्त में देते हैं. ).अरे कुछ लोग हर जगह गलत होते हैं.कश्मीर में कौनसे सब के सब संत ही हैं?<br />
अंत में ये ही कहना चाहूँगा की ऊपर लिखी सारी बातों क अर्थ ये नहीं की हमारे भीतर सुधार की कोई जरुरत नहीं हैं या हमारे बीच गलत लोग हैं ही नहीं .यदि कोई मुस्लिमों के प्रति गलतफहमी दूर करना चाहता है तो उसका स्वागत हैं.शिकायत केवल उनसे है जो एक बैलेंस बनाकर नहीं रखते.ये नहीं की बस...'हाय मुसलामानों को जीने दो' वाले नारे लगाने शुरू कर दिए जाए इससे तो अल्पसंख्यक खुद को एक निश्चित खांचे में ही बंद करके रखेंगे.'धर्म खतरे में हैं' जैसा नारा हिंदुत्वा या इस्लाम के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले अक्सर लगाते है लेकिन मुझे नहीं लगता की अब इससे कुछ ख़ास फर्क पड़ता हैं.उदाहरण के लिए आज गिलानी या गिरिराज किशोर एक दुसरे के धर्म या उन्हें मानने वालों के बारे में कुछ कहें तो तो हिन्दू या मुसलमान कोई ख़ास ध्यान नहीं देंगे.लोग इन्हें गंभीरता से लेंगे ही नहीं.लेकिन जो लोग सेकुलर हैं या जो हर धर्म को ही अफीम मानते हों कम से कम वो तो एक संतुलन बनाकर रखें क्योंकि उनकी बात ज्यदा ध्यान से सूनी जाती हैं.अभी तो एक समुदाय को दबा कुचला बताया जा रहा है जबकि दुसरे को उसके दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा हैं इससे समस्या सुलझेगी या और ज्यादा बढ़ेगी?<br />
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<span> </span></div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-86889660623143738942011-12-20T07:06:00.000-08:002011-12-20T07:24:12.083-08:00नैतिकता:एक प्रशन यहाँ भी ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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आजकल ब्लॉगजगत में नैतिकता और अनैतिकता को लेकर बहस का सीजन चल रहा है.सोचा कई दिनों से मन में कुलबुला रहे प्रश्नों को आपके सामने रखने का येही सही समय हो.वैसे भी आजकल समय कम ही मिल पता है,यहाँ तक की रविवार को भी आजकल तो आधा समय काम ही करना पड़ता है और कुछ सप्ताह और ऐसा ही चलेगा.लेकिन आज एक बहाना बनाकर छुट्टी ले ही ली.या यूँ कह लें की छोटे से कारण को एक बड़ा कारण बता दिया (अनैतिकता) .क्या करें आराम ही नहीं मिल पाता.तबीयत इतनी भी खराब नहीं की काम ही न कर सकूँ.खैर ये आदत तो मैं आने वाले समय में सुधार ही लूँगा. लेकिन यहाँ मेरा सवाल दूसरा है.<br />
वैसे तो मैं शुरू से ही मानता रहा हूँ की व्यापार की तुलना में नौकरी करना न सिर्फ कठिन है बल्कि कई बार इसमें आपको अपने आताम्सम्मान को भी गिरवी रखना पड़ता है चाहे नौकरी सरकारी हो या प्राइवेट और चाहे आप कितने ही बड़े पद पर क्यों न हो. खासकर तब जब आप पर हुकुम चलने वाला या आपको डांटने वाला आपकी तुलना में एक बुरा व्यक्ति हो जबकि आपको कभी भी खुद आपके मां बाप ने उस तरह से ना डांटा हो.हालांकि समय के साथ ये बात तो समझ में आ गई की नौकरी में हमेशा ऐसा ही हो ये जरुरी नहीं.और जो आपको डांट रहा है वो जरुरी नहीं निजी दुश्मनी निकल रहा हो.उसे भी अपने से बड़े अधिकारीयों की दो बातें तो सुननी पड़ती है.वैसे भी लोग किसी भी तरह की नौकरी करना ही बंद कर दें तो सारी व्यवस्था ही बिगड़ जाए. एक समय ऐसा भी था जब ये माहौल था की यदि आपको कोई अच्छी सरकारी नौकरी चाहिए तो इसके लिए चेक और जैक दोनों का जुगाड़ होना ही चाहिए.हालांकि तभी मैंने ये बात भी सोच ली थी की चाहे जो हो जाए लेकीन मेर पास ऐसा कोई अवसर खुद चलकर भी आया तो भी मैं स्वीकार नहीं करूँगा चाहे जिन्दगी भर धक्के ही क्यों न खाने पड़े.हालांकि हालत इतनी खराब नहीं थी लेकिन हाँ ,बहुत अच्छी भी नहीं कह सकते की कुछ करने की जरुरत ही ना पड़े.<br />
पर सवाल यहीं ख़तम हो गए हों ऐसा नहीं है.कुछ दिनों पहले अपने एक पुराने दोस्त से लम्बे समय बाद मुलाकात हुई जो की एक निजी इंश्योरंस कंपनी में काम करता है.उसने शुरुआती बातचीत के बाद बताया की कई बार अपनी मोटी सेलेरी के बावजूद उसे अपनी जॉब छोड़ देने का मन होता है.कारण सुनकर मैं खुद हैरान था क्योंकि स्कूल और कॉलेज के समय से ही हमेशा बेफिक्र और मस्ती के मूड में रहने वाले अपने दोस्त को मैंने इससे पहले कभी इतनी गंभीर बातें करते नहीं देखा.उसने बताया की कैसे उसे अपनी परफोर्मेंस अच्छी रखने के लिए रोज सैकड़ों झूठ अपने clients से बोलने पड़ते है.इन्स्योरंस के बेनिफिट्स को बढ़ा चढ़ाकर बताना पड़ता है,कुछ जानकारियों और शर्तों को घुमा फिराकर बताना पड़ता है.यहाँ तक की कई बार तो सविंग्स पर ब्याज भी गलत केलकुलेट करके बताना पड़ता है.ग्राहक चाहे जितना पढ़ा लिखा हो पर इतनी बारीकियों को वह नहीं समझता.जब मैंने पुछा की आज तीन साल बाद उसे अचानक इस बात पर दुःख क्यों हुआ.तब उसने बताया की खुश तो वो अपने काम से पहले भी नहीं था लेकिन कुछ समय पहले जब उसने एक पालिसी करवाई और उसे पता चला की वह पालिसी udaipur की किसी विधवा महिला के बच्चे के नाम से थी जिसके पास अपने दिवंगत फ़ौजी पति की पेंशन के अलावा और कोई आय का साधन नहीं था.telephone पर उस महिला को बीमा ऑफर करते हुए उसे ये बात पता नहीं चल पाई क्योंकि उसने उससे बिना कोई ज्यादा जानकारी लिए ही उसे कन्विंस कर लिया था लेकिन उसका फॉर्म भरते समय जब पता चला तो लगा जैसे सर पर घड़ों पानी पड़ गया हो.वो इसी बात पर परेशान था की न जाने उसने ऐसे ही और कितने ही लोगों को झूठे वायदे किये होंगे.<br />
उसकी सारी बातें सुनकर मैं खुद भीतर से परेशान था.और उसे लघभग उन्ही सारे तर्कों(या बहाने कह लीजिये) से दिलासा दिया जिनसे मैं अपने मन को बहलाता रहा हूँ अलग अलग कंपनियों में कुछ सालों की अपनी नोकरियों के दौरान. हालांकि उसकी तुलना में मैं थोडा भाग्यशाली रहा हूँ क्योंकि मुझे इतना कुछ गलत नहीं करना पड़ा और अंततः अब तो ऐसे काम से पीछा भी छूट गया है..उसे जाते जाते समझाया की वो ये काम कंपनी के लिए कर रहा है,इसका फायदा उस कंपनी को होगा और उसे तो उसकी मेहनत का ही पैसा मिलेगा (वो कमीशन पर नहीं है.),उस महिला के बारे में तुझे पता नहीं था या बड़े बड़े फिल्मस्टार्स और क्रिकेटर्स भी तो जिन कंपनियों के उत्पादों का प्रचार कर रहे हैं उनकी प्रशंशा बढ़ा चढ़ाकर ही तो करते हैं इसमें बेईमानी कैसी?<br />
लेकिन सच तो ये है की इन सभी तर्कों के खोखलेपन को वो भी मेरी तरह समझता होगा.उसे जाने के बाद लगा की एक हद तक मैं खुद भी तो ये काम कर चूका हूँ और उसकी तरह ही लम्बे समय से परेशान भी रहा हूँ. भले ही मेरे काम की प्रकृति थोड़ी अलग हो.अपनी कम्पनी के उत्पादों और सेवाओं की बढ़ा चढ़ाकर प्रशंशा,ग्राहकों से अतिशयोक्तिपूर्ण दावे जबकि मुझे पता हैं इनमे से कई तो कभी पुरे ही नहीं होंगे यहाँ तक की उनकी शिकायतों के निपटारे के बारे में भी झूठे आश्वासन.क्योंकि पता है की कम से कम निजी कंपनियों में नोकरी में रहते केवल मेहनत से तो कुछ नहीं होने वाला जब तक की हम झूठ न बोलें.कभी कभी तो बहुत बुरा लगता है की हमसे अच्छे तो वो किसान और मजदूर है जो हाड तोड़ महनत तो करते हैं पर हमारी तरह बेईमानी करने को तो मजबूर नहीं.जबकि हम पढ़े लिखे और सभ्य लोग कभी मजबूरी के नाम पर तो कभी व्यवहारिकता के नाम पर झूठ बोल रहे हैं,बेईमानी कर रहे हैं.<br />
मैं और मेरा दोस्त तो शायद उतने मजबूर नहीं है,हो सकता है मेरा दोस्त भी नौकरी छोड़ दे या बदल ले या कोई छोटा मोटा बिजनेस करने लगें जहां शायद ये सब करने की जरुरत न पड़े बाकी भविष्य का कोई पता नहीं किसे कहाँ ले जाए.लेकिन बहुत से लोग सचमुच मजबूर होंगे,उनके मन में ये ख्याल भी आता होगा लेकिन कुछ कर नहीं सकते.जिन्हें न अच्छी जॉब मिलती है न ही वे कोई खुद के स्तर पर कोई काम कर सकते हैं.तो क्या उपभोक्तावाद की ऐसी आंधी आ गई है की या तो खुद को कोसते रहो या व्यावहारिकता के नाम पर सब कुछ चलते रहने दो.ये बातें मैं खूब सोच विचार के बाद लिख रहा हूँ.क्योंकि ब्लॉग्गिंग है ही इसलिए.इसका यही तो फायदा है.और यहाँ सब कुछ निजी होकर भी सार्वजनिक है लेकिन साथ ही सब कुछ सार्वजनिक होकर भी निजी है(आप समझ गए होंगे मैं ये बात क्यों कह रहा हूँ.).<br />
<span style="color: blue;"><b>चैपल की चतुराई या बेईमानी?</b></span><br />
ऑस्ट्रेलिया के साथ मुकाबले से पहले टीम इंडिया के खिलाफ चैपल की सेवाएँ लेने को लेकर एक अजीब सी बहस छिड़ गई है.क्योंकि चैपल भारतीय टीम के पूर्व कोच रहने के कारण सचिन जैसे खिलाडियों की कुछ ऐसी कमियों से भी परिचित हैं जिन्हें सिर्फ कोच से ही डिस्कस किया जाता है.और जिन्हें गुरु ग्रेग ऑस्ट्रेलिया टीम के सामने disclose कर सकते है.बहस इसी बात पर है की क्या चैपल का ये कदम अपने एक पूर्व शिष्य यानी टीम इंडिया के खिलाफ बेईमानी कहलायेगा जैसा की एक पूर्व क्रिकेटर ने कहा की आप एक कंपनी छोड़कर दुसरी में जाते हैं तो पहली वाली के सेक्रेट्स खोलना अनैतिक है,या इसमें कोई बुराई नहीं क्योंकि अनुभव फिर किस चिड़िया का नाम हैं.इसका इस्तेमाल चैपल कर भी रहे हैं तो इसमें गलत कहाँ हैं.हाँ यदि इंडियन टीम का कोच रहते उन्होंने जान बूझकर हमारे खिलाडियों को सिखाने में कमी रखी तो जरूर ये अनैतक है.आप क्या कहते हैं? <br />
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</div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-4488472546229986212011-10-16T04:40:00.000-07:002011-10-16T04:40:21.964-07:00अंतरजाल पर हावी भीडतंत्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px;"></span><br />
<div> हाल ही में कश्मीर पर प्रशांत भूषण द्वारा लापरवाही भरे बयान के बाद हुए कायराना हमले और इससे पहले दिग्विजय सिँह द्वारा 22 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के बाद इंटरनेट के सकारात्मक और नकारात्म प्रभावों को लेकर बहस फिर तेज हुई है.क्योंकि दोनों ही मामले कहीं न कहीं इंटरनेट के दुरुपयोग से जुडे हुए है.</div><div>वैसे तो मिस्त्र ट्यूनिशिया और इंग्लैण्ड के विरोध प्रदर्शनों के बाद से ही दुनियाभर में अंतरजाल पर सोशल साईटों के बढते प्रभाव को लेकर चर्चा हो रही है.हालाँकि भारत में इंटरनेट यूजर्स की संख्या अपेक्षाकृत कम है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहाँ अभी तक सब ठीक ठाक ही चलता रहा हो.धर्म के नाम पर एकतरफा और नफरत फैलाने वाले ब्लॉग,ढेरों पोर्न साईटें और ब्लॉग्स यहाँ तक कि खलिस्तान और माओवाद समर्थक प्रोपेगेंडा साईटें पहले से चल रही थी.लेकिन फेसबुक और ऑरकुट के जरिये कभी कभी कश्मीर के लडकों को सुनियोजित तरीके से भडकाकर पत्थरबाजी कराने के अलावा इसका कोई खास गलत असर अभी तक देखने में नहीं आया लेकिन हाँ...ये भविष्य के लिए एक संकेत तो है ही.</div><div>लेकिन जैसे जैसे इंटरनेट प्रयोग करने वालों की तादाद बढती जा रही है,सरकार की भी परेशानी बढती जा रही है क्योंकि इससे इन चीजों को और बढावा मिलेगा.इस तरह के स्टंटबाज केवल सरकार को ही नहीं आम आदमी को भी मुसीबत में डाल सकते है खासकर जब धर्म और राष्ट्र के नाम पर भीडतंत्र वाली बातें की जा रही हों.यहाँ तक तो सरकार की भी चिंता जायज है.जब भीड के अनियंत्रित होने और शांतिभंग की आशंका होती है तो वास्तविक जगत में धारा 144 जैसे ऊपाय किये जाते है तो फिर कोई न कोई तरीका साईबर स्पेस में भी आजमाया जाए क्योंकि मामला यहाँ भी उतना ही संवेदनशील है और यहाँ लोग कहीं ज्यादा आसानी से इकठ्ठा हो सकते है और एकतरफा व भडकाऊ प्रलाप कर सकते हैं.पोर्न साईटों या साइबर ठगी के इक्का दुक्का मामलों में पहले भी कार्रवाही होती रही है.पर इस दिशा में सरकार अभी तक सख्त नहीं हुई है हालाँकि 2008 में ही आईटी नियमों में मनचाहे संशोधन कर सरकार इंटरनेट उपयोगकर्ताओं पर लगाम कसने की तैयारी कर चुकी है.यहाँ तक कि 11 साईटों को बिना कारण बताएँ बंद भी किया जा चुका है.हो सकता है आगे और सख्ती करनी पडे.</div><div>मगर क्या वास्तव में सरकार की परेशानी का कारण उपरोक्त ही है?ऐसा लगता तो नहीं.दरअसल पारंपरिक मीडिया के सरकार और पूँजीपतियों के हाथ का खिलौना बन जाने के बाद इन्टरनेट एक वैकल्पिक मीडिया के रूप में सामने आया है जो बहुत हद तक दबाव से मुक्त है.यही कारण है की जिन मुद्दों से मुख्यधारा का मीडिया बचता रहा है या जिन पर उसका रवैया तटस्थ रहा है पिछले दिनों उन्हें ब्लॉग और सोशल साइटों पर लगातार उठाया जाता रहा है.महंगाई या भरष्टाचार के मुद्दे हों या पूर्वोत्तर या कश्मीर के सवाल हो,आम आदमी को अपनी आवाज उठाने को इन्टरनेट के जरिये एक अच्छा मंच मिल गया है.एस.गुरुमूर्ति और डॉ. सुब्रह्मनियम स्वामी के खुलासों को पहले इसी माध्यम के द्वारा जनता के सामने लाया गया यहाँ तक की टूजी घोटाले से जुड़े कई तथ्य भी पहले नेट पर प्रसारित किये जाते रहे उसके बाद मीडिया ने उन्हें जगह दी.टीम अन्ना का आन्दोलन तो साइबर वर्ल्ड से ही परवान चढ़ा.इसके अलावा भूमि अधिग्रहण नीति,आदिवासियों के प्रति सरकारी रवैया और विनायक सेन प्रकरण पर तो हाल ही में लिखा गया.और भी कई मुद्दे बीच बीच में उठते रहे हैं जिन पर निष्पक्ष बहस की उम्मीद मुख्यधारा के सरकारी और गैर सरकारी मीडिया से नहीं की जा सकती.अतः ये कहना सही नहीं होगा की केवल प्रोपेगेंडा करने वालों से ही सरकार को परेशानी है.</div><div> वैसे भी सरकार अपने खिलाफ लोगों को जागरूक करने वालों को परेशान करती रही है.आज कांग्रेस टीम अन्ना को भी उसी तरह परेशान कर रही है जैसे कभी तहलका वालों को बी.जे.पी. ने किया था.दिग्विजय सिंह द्वारा २२ लोगों के खिलाफ शिकायत को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि उनके बयान खुद लोगों को उकसाते है.कुछ समय पहले शिवसेना ने भी बेंगलुरू के अजित डी. नामक युवक पर केस कर दिया था.उस पर आरोप लगाया गया की उसने शिवसेना के खिलाफ लोगों को भड़काया और एक कम्युनिटी बना कई लोगों को पार्टी के खिलाफ टिप्पणी करने के लिए उकसाया.नितीश सर्कार ने तो अपने ही दो कर्मचारियों को इसलिए निलंबित कर दिया की उन्होंने फेसबुक पर सरकारी भ्रष्टाचार खिलाफ कुछ लिख दिया था.इन सब उदाहरणों से तो लगता है की सरकार अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाना चाहती है न की उन लोगों को जो वास्तव में इन्टरनेट का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं.</div><div> वैसे मेरा तो मानना है की अभी इन्टरनेट पर किसी भी वजह से किसी भी तरह की सेंसरशिप थोपने की जरुरत नहीं है क्योंकि प्रोपगेंडा करने वाले या भड़काऊ लेख लिखने वाले अभी अलग थलग पड़े हुए हैं और ज्यादातर लोग अभी ख़बरों की भूख मिटाने या दोस्तों से बतियाने या फिर दुसरे हलके फुल्के विषयों पर ही लिखने के लिए इस माध्यम से जुड़े हुए हैं.लेकिन हमें खुद इस तरह के प्रयास करने होंगे की हम सरकार को और अधिक सख्त होने का बहाना नहीं दें.इसके लिए हम खुद अपने स्तर पर क्या कर सकते है ये ज्यादा महत्तवपूर्ण है.सबसे पहले तो हम ऐसे ब्लोगों और साइटों से खुद ही दूरी बनाकर रखें.अपनी किसी पोस्ट या टिप्पणी में इनका लिंक न दें.और न प्रोपगेंडा करने वालों के फोलोवेर बन इन्हें और उत्साहित करें.बल्कि हो सके तो दूसरों को मतलब हमारे दोस्तों या परिवार में से कोई ऐसा करे तो उन्हें भी ऐसा करने से रोकें यदी आपसे छोटे है तो ये ज्यादा जरुरी है.</div><div> प्रोपगेंडा करने वालों या धर्म,किसी व्यक्ति या संगठन के बारे में दुर्भावनापूर्ण या एकतरफा लेख(आलोचनात्मक नहीं ) लिखने वालों की मानसिकता बिलकुल अलग होती है.इन्हें लगता है मानो ये कोई बहुत बड़ा वैचारिक और सार्थक आन्दोलन चला रहे है.p.b. पर हमला करने वालों ने पहले इन्टरनेट पर ही भरपूर समर्थन जुटा लिया था.इन्हें केवल इनके समर्थन में इनके ब्लॉग पर गए लोग ही दिखाई देते हैं और यदी इनकी संख्या धीरे धीरे बढ़ती रहती है तो इन्हें लगता है मानो सारा देश ही इनका समर्थन कर रहा है.हममें से ही कुछ ने वहाँ इनका समर्थन कर यहाँ तक की फोलोवर बन इनका उत्साह बढाया है.इससे हमें बचना चाहिए.ऐसे लोग आगे भी साइबर जगत में रहेंगे लेकिन हमारी कोशिश होनी चाहिए की हम खुद आग में घी डालने का काम न करें.और कुछ न हो तो कम से कम इतना तो कर सकते है न की अपने ब्लॉग पर आने वाली आपत्तिजनक और दुर्भावनापूर्ण टिप्पणियों को हटा दें कई लोग ज्यादा ही लोकतान्त्रिक होने के चक्कर में इन्हें भी सजाकर रखते हैं.और यदी हम इतना भी नहीं कर सकते तो सरकारी सेंसरशिप झेलने को तैयार रहें.</div><div><span class="Apple-style-span" style="color: blue;"><b>जूनियर अडवानी की राजनीति में एंट्री </b><b>?</b></span></div><div>यूँ तो टी.वी. स्टार प्रतिभा अडवानी अपने पिता लालकृष्ण आडवानी के साथ पहले भी रथयात्रा में शामिल रह चुकी है लेकिन इस बार जिस जोशो खरोश के साथ उन्हें आगे किया जा रहा है उसे देखकर ये अटकलें लगाईं जा रही है की आडवानी जी अब अपनी ढलती उम्र को ध्यान में रख अपनी लाडली का राजनीतिक करिअर बनाने की तैयारी कर रहे है.आडवानी पी.एम्. बने या न बने पर शायद उन्हें लगता है की जूनियर अडवानी की लांचिंग का ये सही समय है.रथयात्रा के लिए प्रतिभा अडवानी का तैयार किया हुआ थीम सोंग लोगों को खूब पसंद आ रहा है.जिस तरह वे इस बार जनता के बीच जाकर मिल रही है उससे बाकी के कार्यकर्ताओं ने अटकलें लगानी शुरू कर दी है.वैसे आपको क्या लगता है ?</div></div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-54263491701744655162011-08-19T00:09:00.000-07:002011-08-19T00:09:02.151-07:00...क्योंकि फिर नहीं मिलेगा मौका<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div closure_uid_6lpmzy="135">भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनता दिख रहा है. देशभर में बहुत से लोग सडकों पर है तो बहुत से </div><span id="6_TRN_hr">सोशल साइटों <span id="6_TRN_hy">पर</span> </span>डँटे हुए है.परंतु यह संख्या बहुत कम नहीं तो बहुत ज्यादा भी नहीं है.ब्रेकिंग न्यूज की होड में ही सही प्राईवेट न्यूज चैनलों ने जनलोकपाल की मुहिम को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड रखी.परतु अभी अभी क्रिकेट मैच फिर से शुरु हो चुके हैं .लोगों का रुझान इस तरफ भी निश्चित रूप से होगा.वहीं न्यूज चैनल भी अपने क्रीकेट प्रेमी दर्शकों को निराश नहीं करेंगे.इस और अगले शुक्रवार को नई फिल्में भी आ सकती है.इसके अलावा बहुत से लोग तो केवल दूरदर्शन पर ही निर्भर है जिसने तीन दिन से विरोध प्रदर्शन की संभवतः एक भी तस्वीर नहीं दिखाई है.ऐसे में एक बडा वर्ग हमारे आस पास है जिसका ध्यान इस ओर से हट सकता है.और भी कई लोग है जो इसे एक सामान्य आंदोलन ही मान रहे है क्योंकि उन्हें अभी भी जनलोकपाल बिल के बारे में सामान्य बातें भी नहीं पता.ऐसे में हम लोगों की जिम्मेदारी बढ जाती है जो इस बारे में पर्याप्त जानकारी रखते है.<br />
मैंने खुद अपने छोटे भाई और कुछ दोस्तों को जो इस बारे में रुचि नहीं ले रहे थे इसके बारे में बुनियादी बाते खासकर सरकारी बिल की कमियों जैसे शिकायत निराधार पाए जाने पर शिकायतकर्ता को ही दो साल की सजा और शिकायत सही पाए जाने पर दोषी को केवल छह सात माह की सजा आदि के बारे में बताया है.केवल इतनी बातें ही काम कर गई और उन्हें समझ में आ गया कि ये अवसर क्यों महत्तवपूर्ण है.यहाँ ब्लॉग जगत में बहुत से लोग खासकर महिलाएँ इस आंदोलन का समर्थन अपने तरीके से कर रही है.मैंने भी उनके ब्लॉग के साथ साथ कुछ मीडिया साईटों पर भी कमेंट किये है.लेकिन अब लगता है केवल इतने से काम नहीं चलेगा.क्योंकि अब लगने लगा है कि यदि ये अवसर निकल गया तो हमेशा मन में ये बात कचोटेगी कि देश के लिए एक मौका आया और मैं सक्रीय रुप से कुछ नहीं कर पाया.हालाँकि हम प्राइवेट जॉब करने वालों के लिए समय निकालाने थोडा मुश्किल होता है लेकिन अब किसी भी तरह अपना छोटा सा योगदान देना ही होगा.<br />
अब कल से हमारे शहर में भी जगह जगह छात्रों व्यापारियों और आम लोगों की रैलियाँ निकलनी शुरु हो गई है.अतः अब मेरी पूरी कोशिश होगी लाज शर्म का घूँघट उतारकर ऐसी ही किसी रैली सभा संगत में शामिल होने की.दोस्तों और भाई को साथ लेने से हिचकिचाहट थोड़ी कम होगी(जो हम माध्यम वर्ग के लोगों कि ख़ास समस्या है)और काम आसन हो जायेगा.<br />
अतः आप भी कोशिश कीजिये लोगों को ये बताने की कि क्यों ये अवसर इतना महत्तवपूर्ण है.नई फिल्में,क्रिकेट,सास बहु कि चुगली सब कुछ दिनों के लिए बंद कीजिये या कम कीजिये और हो सके तो विरोध प्रदर्शनों में शामिल होइए या फिर अपने आस पास के लोगों को जन लोकपाल के बारे में जानकारी दीजिये.क्योंकि ये माहौल सिर्फ १५-२० दिन नहीं बल्कि लम्बे समय तक बनाएं रखना हमारी ही जिम्मेदारी है.जितना हो सके जैसे हो सके हम अपना योगदान दे सके तो अच्छा होगा.<br />
अंत में एक बात और इस बिल के सभी प्रावधान लागू हो जाने के बाद लोकपाल विधायिका,न्यायपालिका या कार्यपालिका के किसी काम में कोई दखल नहीं देगा.लोकपाल और लोकायुक्त केवल इनसे सम्बंधित भरष्टाचार के मामलों कि सुनवाई और जांच करेगा इसलिए ये कहना बिलकुल गलत है कि इसके आ जाने के बाद संविधान कि मूल आत्मा ही ख़त्म हो जाएगी.हमारे चुने हुए प्रतिनिधि घोटाले करे या हमारा टैक्स खाए तो हम क्या करे? फिर से पांच साल का इन्तजार? क्योंकि बीच में यदि हमने शिकायत कि तो कहा जायेगा कि आप जो कर रहे है कानून के खिलाफ है और आप इन्हें अगले चुनाओं में सबक सिखा सकते है इनके खिलाफ वोट करके और अपने मनपसंद के उम्मीदवार को जिताकर.क्या बेहूदा तर्क है यानी कि तब तक वो हमें लूटता रहे.और क्या गारंटी है कि उसके बाद आने वाला प्रतिनिधी वहाँ जाकर हमारी मांगों को पूरा करेगा.अभी जो सांसद है उन्हें भी तो जनता ने ही भेजा है पर क्या कर रहे है वो आज.भरष्टाचार रोकने के नाम पर एक ऐसा कानून ला रहे है जो उलटे इसे बढ़ावा देगा.ये काम वो हमारा प्रतिनीधि बनकर कर रहे है.यानी एक ऐसा क़ानून जिसमे किसी भरष्ट सांसद के खिलाफ कि गई कोई शिकायत झूठी या फ़ालतू पाई जाती है तो शिकायतकर्ता को २ साल कि जेल होगी और सच पाई जाती है तो दोषी को केवल ६ या ७ माह कि ही सजा होगी, वो हमारी मर्जी से बन रहा है?ऐसा है जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा shaashan ?हमने वहाँ लोगों को जिताकर भेजकर खूब देख लिया लेकिन वहाँ पिछले ६५ साल से माहौल ऐसा हो चूका है कि कोई भी अच्छा आदमी जनता के हित में फैसले खासकर के करप्शन के खिलाफ ले ही नहीं सकता है.क्योंकि उसकी कुछ चलती ही नहीं है.इसलिए अच्छा हो कि हम इस समस्या का एक परमानेंट या बहुत हद तक प्रभावी समाधान यानी जन लोकपाल को समर्थन दें.इसीलिए मेरा समर्थन किसी व्यक्ति को न होकर इस बिल को है.क्योंकि यदि एक बार ये मौका हाथ से निकल गया तो मुझे नहीं लगता कि फिर कभी हम अपनी बात सही से रख पायेंगे.</div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-79232998929087050222011-07-13T06:36:00.000-07:002011-07-13T06:36:00.076-07:00भारी पड़ेगी ये खामोशीवैसे तो आज कश्मीर पर एक पोस्ट लिखना चाहता था जो को मेरा प्रिय विषय भी है लेकिन आज टी.<span id="6_TRN_1x">वी. पर देखी एक खबर ने थोडा विचलित कर रखा हैं.</span> .कोयम्बटूर में आपसी झगडे के बाद एक युवक को चार युवकों ने सडक के बीचों बीच पहले बाईक से टक्कर मारी और फिर सिर पर भारी पत्थरों से वार कर उसकी जान ले ली.ये दृश्य चौराहे पर लगे सीसीटीवी कैमरे में ठीक उसी तरह कैद हो गये जैसे कुछ समय पहले पत्रकार जेडे की हत्या के दृश्य हमने देखे.लेकिन यह घटना थोडी अलग प्रकार की थी.कोयम्टूर में इस युवक की हत्या गोली मारकर नहीं बल्कि पत्थर मारकर की और हत्यारों ने इसके लिए पूरा समय लिया.वहाँ खडे सैकडों लोगों ने इस दृश्य को देखा लेकिन किसीकी हिम्मत नहीं हुई कि इन लडकों को रोक सके.टी.वी. पर भीड के रवैये को लेकर आलोचना हो रही थी लेकिन मैं सोचता हूँ कि वो लोग क्या सिर्फ इसलिए नहीं बोले कि वो डर रहे थे या कोई और कारण था.और यदि मैं वहाँ होता तो क्या कुछ कर पाता.<br />
देशभर में इस तरह की घटनाएँ होती रहती है.छेडछाड हत्या मारपीट गैंगवार या लूट की घटनाएँ भरे बाजार में हो जाती है मगर लोग विरोध नहीं कर पाते.शुरूआत में मुझ पर ऐसी खबरों का कोई खास असर नहीं होता था.लेकिन चार पाँच साल पहले एक बार हमारे घर से मात्र तीन किलोमीटर दूर दिनदहाडे भरे बाजार में कुछ गुंडों ने तलवार से एक युवक की दोंनों हथेलियों को काट डाला था.तब पहली बार लगा कि यदि मैं वहाँ होता तो क्या करता.भीड का हिस्सा बन सब देखता रहता या क्षमताभर विरोध करता.सबसे पहले तो ख्याल आया कि ऐसा करने पर मेरी भी जान को नुकसान हो सकता था लेकिन यदि उस युवक की जगह मेरे घर का कोई सदस्य होता तो क्या तब भी मैं इस बात की परवाह करता कि सामने वालों के हाथों में तलवार है?नहीं,बिल्कुल नही.दूसरा ख्याल आया कि लोग क्या कहेंगे खुद मेरे घरवालों की क्या प्रतिक्रिया होगी.यही कि तुझे क्या जरूरत थी बीच में बोलने की.<br />
<div> मुझे तो लगता है कई लोग इस कारण भी चुप रह जाते हैं की लोग क्या कहेंगे पर क्या लोगों की प्रतिक्रियाएं किसीकी जान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है.या फिर अब हम पहले से ज्यादा असंवेदनशील और स्वार्थी हो गए है.<br />
फिर भी बीच बीच में कुछ अच्छे उदाहरण भी सुनने को मिलते है.कुछ दिन पहले मैं एक महिला के बारे में पढ़ रहा था जो गुजरात दंगों के दौरान अपने मुस्लिम पड़ोसियों को बचाने के लिए हिंसक भीड़ के सामने हसिया लेकर खडी हो गई और किसी तरह अपने मकसद में कामयाब भी हो गई.दिल्ली में एक २२ वर्षीय युवक को अपनी सहपाठी के साथ छेड़छाड़ करने वालों का विरोध करने पर जान गंवानी पड़ती है.वही जयपुर के एक सिख छात्र का अपहरण इसीलिए कर लिया जाता है की उसने अपने साथ पढने वाली एक लड़की के साथ कुछ बदमाशों द्वारा बदतमीजी किये जाने का विरोध किया था बाद में इस छात्र के साथ मारपीट की जाती है और उसके केश भी काट दिए जाते है. इन लोगों की बहादुरी के हम प्रशंसक है इन्होने अपनी जान की परवाह नहीं की.लेकिन एक या दो लोगों की ही बहादुरी दिखने से कुछ नहीं होगा कई बार इसके गलत परीणाम भी हो सकते है जैसे की ऊपर के दो उदाहरणों में दिए गए है.साथ ही मैं मानता हूँ की जहां कुछ शारीरिक होने का डर हो या आपकी जान पर ही बन आये वहाँ आवेश में आकर कोई कदम उठाना हमेशा समझदारी भरा नहीं होता.खासकर जब आप अकेले हों या अपराधी हथियारबंद हों हालांकि वहां भी ये सवाल मुझे परेशान करता है की यदि हमारे घर की किसी महिला के साथ बदतमीजी हो या हमारे घर के किसी सदस्य के साथ मारपीट हो तब भी क्या हम इस बात का ख्याल करेंगे? यानी की हम इस मामले में स्वार्थी है?लेकिन फिर भी ये मान लेने में कोई हर्ज नहीं की प्रत्येक इंसान की कुछ सीमायें भी होती हैं.<br />
पर कोयम्बटूर की इस घटना में तो किसी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया गया बल्कि इन लोगों ने शराब भी पी राखी थी ऐसे ही मंबई में एक बार नई साल के जश्न के दौरान जब महिलाओं के कपडे फाड़े जाते रहे तब भी ऐसी कोई बात नहीं थी लेकिन वहाँ भी लोग चुप चाप सब देखते रहे.कम से कम ऐसी परिस्थियों में चुप रह जाने का मुझे कोई कारण नहीं नजर आता.राजस्थान,हरियाणा,उत्तर प्रदेश.,मध्य प्रदेश,बिहार में तो इस तरह की घटनाएं होती रहती है.लोगों द्वारा शुरुआत में ही विरोध न करने के कारण ही यहाँ दादाओं,मुन्नाओं,ताऊओ,चौधारिओं,बाहुबलिओं के हौसले इतने बढ़ गए है.<br />
पुलिस हर जगह मौजूद नहीं रह सकती और न ही हमें ऐसी उम्मीद करनी चाहिए.हमें न तो सीमा पर जाकर लड़ना है और न ही आज अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना है लेकिन हमारे आम जीवन में जब इस तरह की घटना हो तो वहाँ हमें उन सैनिकों या स्वतंत्रता सैनानियों जिनकी बहादुरी की किस्से हमें रोमांचित करते है,की हिम्मत की कम से कम चौथाई हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी तभी असामाजिक तत्त्व ऐसी वारदात करने से पहले हजार बार सोचने को मजबूर होंगे. ठीक है जेसिका हत्याकांड जैसी घटना के समय लोग तुरंत कुछ नहीं कर पाए लेकिन जब पुलिस को गवाहों की जरुरत पडी तो कोई सामने नहीं आया और कुछ को गवाही के लिए तैयार भी किया गया तो वो भी मुकर गए.कारण चाहे जो भी हो लेकिन भीड़ की इसी मानसिकता का फायदा अपराधी उठाते हैं.पुलिस या प्रसाशन की बेईमानी या असंवेदनशीलता को हम चाहे जितना कोसें लेकिन सच तो ये है की जब जब भी हमारी बारी आई तो हम भी पीछे हट गए हैं.पुलिस और व्यवस्था को बिगाड़ने में हमारा भी हाथ है.यदि हम यूँ ही चुप रह गए तो एक दिन ये खामोशी हम पर ही भरी पड़ेगी.<br />
ये सब लिखने के बाद भी मैं ये ही सोच रहा हूँ की उस घटना के वक्त मैं होता तो क्या विरोध कर पाता और इसका परिणाम क्या होता और यदि नहीं कर पाता तो शायद ये इससे जन्मा अपराधबोध मेरा पीछा ही नहीं छोडता.<br />
</div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-86192980440118658462011-06-26T04:19:00.000-07:002011-06-26T06:15:44.192-07:00कनाडा से भारत तक......'बेशर्मी मोर्चा'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div>कनाडा के एक पुलिस अधिकारी द्वारा विश्वविद्यालयों की छात्राओं को दी गई एक सलाह की 'यदि लडकियां बलात्कार से बचना चाहती है तो उन्हें <span id="6_TRN_10">slut</span>'(वैश्या) जैसे कपड़ों से परहेज करना होगा' के बाद दुनिया भर में इस पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हई है.कनाडा,अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया सहित अनेक देशों में महिलाओं ने 'slutwalk ' का आयोजन किया है जिसमे पुरुषों ने भी अच्छी भागीदारी की है.इन महिलाओं के अनुसार इन प्रदर्शनों के जरिये वे यह बताना चाहती है की बलात्कार जैसे अपराध कुछ पुरुषों की महिला विरोधी लम्पट मानसिकता का नतीजा है और उन्हें अपने<br />
मन मुताबिक कपडे पहनने का हक़ है.<br />
<div></div></div><div> अब भारत में भी इस तरह <span id="6_TRN_w2"><span id="6_TRN_w5">कि ही </span></span> रैली के लिए तैयारियां चल रही है.डी.यु. में द्वितीय वर्ष की पत्रकारिता की छात्रा उमंग सभरवाल ने <span id="6_TRN_w8">फेसबुक </span> के जरिये दिल्ली की छात्राओं से इस तरह की रैली में शामिल होने का आह्वान किया है.इस रैली का नाम उन्होंने ' <br />
<div>बेशर्मी </div>मोर्चा' रखा है.वही मुंबई में एक गैर सरकारी संस्था ने भी जुलाई के अंतिम सप्ताह में एक ऐसे ही विरोध प्रदर्शन का आयोजन करने का फैसला किया है.</div><div> महिलाओं के लिए ये कोई नई बात नहीं है की उनके कपड़ों से ही उनके चरित्र को आँका जाता है.पढ़े लिखे पुरुषों में से भी कईयों की ये ही सोच है की महिलाओं के 'भड़कीले' वस्त्र पुरुषों की यौन उत्तेजना के लिए उत्प्रेरक का काम करते है जिससे की पुरुष खुद पर काबू नहीं रख पाते.वहीं कुछ महिलाओं का भी मानना है की जो महिलायें छोटे कपडे पहनती है उन्हें खुद से सती <span id="6_TRN_wn">सावित्री </span> जैसे व्यवहार किये जाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.</div><div> परन्तु मनोविज्ञान की माने तो बलात्कार जैसे अपराधों के पीछे दैहिक आकर्षण उतना बड़ा कारक नहीं है जितनी की पुरुषों की सदियों पुरानी वही सोच जो महिलाओं को हर हाल में दबाएँ रखना चाहती है.साथ ह़ी कई बार के अध्ययनओं में ये बात सामने आ चुकी है की बलात्कार की शिकार ज्यादातर वे ह़ी महिलायें होती है जो <span id="6_TRN_wq"><span id="6_TRN_ws">साड़ी</span></span> या सलवार सूट जैसे कपड़ों में होती है.कम कपड़ों वाला तर्क वैसे भी बहुत कमजोर है क्योंकि एक ८० साल की बुजुर्ग से लेकर ६ माह की बची तक कोई भी महिला आज के माहौल में सुरक्षित नहीं है.लेकिन फिर भी चाहे विकसित समझे जाने वाले पश्चमी देश हो या पिछड़े माने जाने वाले इस्लामिक राष्ट्र हो या फिर हों विकासशील भारत जैसे देश, महिलाओं को हर जगह पुरुषों की शिकारी के बजे शिकार को ह़ी दोषी ठहराने वाली मानसिकता का सामना करना ह़ी पड़ता है.</div><div> इन सब बातों का विरोध महिलायें शुरू से करती भी रही है.हमारे देश में भी बहुत कुछ इस बारे में लिखा जा रहा है.कुछ साल पहले दक्षिण भारत के एक शहर (नाम याद नहीं आ रहा) में कुछ इसी तरह के विरोध प्रदर्शन का आयोजन एक गैर सरकारी संस्था ने ह़ी किया था.जिसमे शहर की सबसे व्यस्त सड़कों पर लडकियां अलग अलग जगहों पर खडी हो जाती और वहाँ से गुजरने वाले लड़कों को उसी तरह से घूरती जैसे लड़के लड़कियों को घूरते है.इसका मकसद लड़कों द्वारा लड़कियों को घूरे जाने की गंदी आदत का विरोध करना था क्योंकि इससे वे असहज महसूस करती है.इसके अलावा तहलका की निशा सुसन द्वारा श्रीराम सेना नामक एक हिंदूवादी संगठन के विरोध में चलाया गया एक <span id="6_TRN_wx">कैम्पेन </span> भी बहत चर्चित रहा था.मंगलौर के एक <span id="6_TRN_wz">पब </span> में लड़कियों की पिटाई करने वाले इस संगठन ने निशा के अभियान के बाद अपने आगे के ऐसे ही 'अभियान' वापस ले लिए थे.निशा का <span id="6_TRN_x4">कैम्पेन </span> जिस तरह विवादों में आ गया था वैसे ह़ी उमंग के द्वारा इस रैली का नाम बेशर्मी<br />
मोर्चा रखे जाने पर कुछ लोगों ने अभी से आपत्ति करनी शुरू कर दी है.परन्तु उमंग का कहना है की ये नाम उन्होंने एक ग्रुप मीटिंग के बाद एकमत से चुना है ताकि लोग समझ जाए की हमारा मकसद क्या है और लड़कियों के छोटे कपड़ों का मतलब उनकी 'हाँ' न समझा जाये.</div><div> मुझे लगता है की जब किसी भी गलत बात का विरोध करने के पारंपरिक तरीके काम न करे तो कुछ हटकर कदम उठाना गलत नहीं है.बस ये ख़याल रहे की माहौल किस बुराई के खिलाफ बनाया जा रहा है.अभी भी जहाँ भी इस तरह के प्रदर्शन हो रहे है वहाँ इस मसले पर गंभीर बहस छिड गई है.लेकिन हमारे यहाँ कुछ लोग अभी से इसे प्रचार के भूखे लोगों का हथकंडा,संस्कृति के खिलाफ आदि मानने लगे है.पर चाहे जो हो कोशिश ये ह़ी होनी चाहिए की बहस इन अपराधों और इनके लिए महिलाओं को ह़ी जिम्मेदार ठहराने वाली प्रवृति पर ह़ी केन्द्रित होनी चाहिए.</div><div> कुछ महिलाओं को लग सकता है की इस तरह के विरोध प्रदर्शनों से पुरुषों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है.ये बात सही भी है लेकिन इस बहाने जो बहस चलती है तो लोग थोडा बहुत सोचने को मजबूर होते है.और मान लेते है की पुरुषों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला तो भी कम से कम वो महिलाएं तो इस बारे में गंभीर होंगी जिन्होंने पुरुषों की इन आदतों को सामान्य मान लिया है.</div><div> जहाँ तक बात है विरोध के तरीके की तो ये एक अच्छे उद्देश्य के लिए ह़ी किया जा रहा है.और पुरुषों की आपत्ति की असली वजह विरोध का तरीका नहीं है दरअसल उन्हें इन सब सवालों से ह़ी परेशानी है जो महिलायें उठा रही है और कम से कम इन बातों का विरोध महिलायें किसी भी तरीके से कर के देख ले,कुछ पुरुषों की गालियाँ तो उन्हें पड़ेंगी ह़ी,फिर चाहे वो कोई छात्रा हो या कोई साहित्यकार.यहाँ नेट पर भी इस तरह के उदाहरण भरे पड़े है.वही कुछ महिलाओं का कहना है की विरोध का ये तरीका अपनाने पर तो बलात्कार जैसा अपराध, जिस पर गंभीर बहस होनी चाहिए वो बहुत हल्केपन में लिया जायेगा.लेकिन ऐसा हैं नहीं क्योंकि हलके में तो इसे अभी समाज ले रहा है.यदी हमारा समाज ये मानता है की बलात्कार और छेडखानी का कारण महिलाओं के छोटे कपडे ह़ी है तो इसका मतलब पहले से ह़ी महिलाओं के प्रति इन अपराधों को हलके में लिया जा रहा है.और इसी का तो विरोध किया जा रहा है. ऐसे विरोध प्रदर्शन यदि एक बहस का माहौल तैयार करते है तो इसमें बुराई क्या है.</div></div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-82142140274046353572011-05-09T07:39:00.000-07:002011-05-09T07:39:33.501-07:00हमारे जमाने में....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div>पहले ही बता दूँ की ना तो ये कोई गंभीर लेख है और ना ही किसी भी तरह से शिक्षाप्रद या जानकारीपरक है.ये केवल अपने अनुभव लिखने की तरह है ताकि आपको बाद में कोई निराशा ना हो और इसी बात को मेरे आगे के लेखों पर भी लागू समझिये.</div><div> बुजुर्गों की नई पीढी से यह शिकायत आम है की युवाओं के पास उनके लिए समय नहीं है या वे उनकी बात नहीं मानते.एक हद्द तक उनकी ये बात सही है पर कई बार लगता है की वो ही हमारी बात नहीं समझते.पर कुछ भी हो जब आप अपना थोडा समय उन्हें देते है तो कई बार बहुत सी रोचक बातें भी जानने को मिलती है.अक्सर उनकी ये बातें 'हमारे जमाने में...'से शुरू होती है.खासकर जब बातें गाँव से जुडी होती है.</div><div> वैसे तो हम शहरी लोगों के लिए गाँव की बहुत सी बातें आज भी नई ही होंगी लेकिन गाँव में भी पहले की तुलना में अब बहुत बदलाव आ चूका है.मेरे दादाजी जो की एक सेवानिवृत फौजी है कई बार इस बारे में बताते है.हम लोग तीस साल से ही शहर में रह रहे हैं यानी मेरे जनम से कुछ ही साल पहले. </div><div> सबसे पहले तो उनकी बातें शुरू होंगी आजकल के युवाओं के आलसीपन और कामचोरी को लेकर जिससे कई बार मैं सहमत नहीं हो पता हूँ लेकिन शारीरिक श्रम की जहां तक बात है वो लगता है की अब कम हुआ है कारण चाहे जो हो.उनके अनुसार पहले लड़के कुश्ती,पहलवानी में तो रूचि रखते ही थे बल्कि घर के कामों में भी पूरा हाथ बंटाते थे.एक सामान्य कद काठी का लड़का भी कई <span id="6_TRN_71">किलो मीटर दूर कुँए से ५-५ मटके पानी के ले आता था.तीन सर पर और दो कन्धों पर.बीमारियाँ बहुत कम होती थी और छोटी मोटी बीमारीओं की लोग परवाह नहीं करते थे.ये नहीं की आजकल के लड़के लड़कियों की तरह जरा मुहं में छाले हुए नहीं की हफ्ते भर के लिए मौन व्रत धारण कर बैठ गए.</span></div><div> दूसरी इनकी बातें होंगी आजकल की महंगाई को लेकर की कैसे पहले केवल 20 रुपये में महीने भर से ज्यादा का पूरे घर का राशन आ जाता था जबकि आज एक किलो चीनी तक नहीं आती.ठीक है की उस जमाने में 20 रुपये भी बहुत होते थे लेकिन ये सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है इसीलिए मैं <span id="6_TRN_ar"> </span>अपनी तरफ से खोद खोदकर भी ऐसी बातें पूछता हूँ.तीसरी बात शादियों को लेकर. एक बार दादाजी ने बताया की जब वे छोटे थे तो उनके पिताजी ने गाँव के एक गरीब की लड़की की शादी में 35 रुपये और कुछ कपडे दिए तो आस पास के गाँव में हंगामा मच गया था.पहले <span id="6_TRN_fw"><span id="6_TRN_fx">बारातें आज की तरह एक दिन में <span id="6_TRN_g1"> ही खा पीकर वापस नहीं हो लेती थी बल्कि चार चार दिनों तक रुका करती <span id="6_TRN_ge"> थी.</span></span></span></span> जरा सोचिये लड़की वालों का क्या होता होगा.उस समय जब किसीके दहेज़ में साइकिल आ जाती तो लोग दूर दूर से उसे देखने के लिए आते.जिस लड़के की शादी में साइकिल आती वो वो उसे रोज धोता,साफ़ करता मगर महीनों तक इसे घर से बाहर नहीं निकालता.ये ही हाल तब था जब शुरू में रेडियो आया.जिस व्यक्ति के पास शुरू शुरू में रेडियो आ गया वो किसी से सीधे मुंह बात ही नहीं करता था.रेडियो को कंधे पर लटकाने के लिए वो एक लम्बी सी सुतली का प्रयोग करता और पूरे गाँव में शान से घूमता.अकड ऐसी की मानो रेडियो का आविष्कार ही इसीने किया हो.महिलाओं और दलितों की स्थिति में जो कुछ उन्होंने बताया मुझे नहीं लगता की आज भी इसमें कोई ख़ास अंतर आया है.इनके साथ भेदभाव अभी भी जारी है.</div><div> और ऐसा नहीं है की केवल बुजुर्गों के पास ही सुनाने <span id="6_TRN_hr">को ये किस्से हो.हमारे माता पिता के पास भी 'अपने जमाने' के बारे में बताने को बहुत कुछ है.इनमे ज्यादातर बातें ७० के दशक की फिल्मों और उनके प्रति लोगों की दीवानगी की होती है.मेरे पापा बताते है की कैसे बच्चन की नई फिल्में देखने ले लिए वे दिनभर सिनेमाघरों की लइनों में खड़े रहते थे और कई कई बार तो एक ही फिल्म को दिन में दो या तीन बार भी <span id="6_TRN_jv">देखते थे जैसे की दीवार और शराबी.उन्होंने बताया की साधारण शकल सूरत वाले राजेश खन्ना के प्रति जैसी दीवानगी लोगों खासकर के महिलाओं में हुआ करती थी वैसी फिर किसी हीरो को लेकर नहीं हुई(वास्तव में?).एक और बात जो मेरे लिए भी नई थी और कल ही मुझे पता चली की दिल्ली में एक बार लोकनायक जयप्रकाश नारायण की एक रैली को फ्लॉप कराने के लिए तत्कालीन सरकार ने राजकपूर की 'बोबी' को मुंबई से प्रिंट मंगवाकर आनन् फानन में दूरदर्शन पर प्रदर्शित कर दिया ताकि इसमें कम से कम लोग पहुंचे.बातें कई है पर अब ज़रा 'हमारे जमाने' की बातें भी तो कर ले.</span></span></div><div><span><span> हमारे जमाने में(बड़ा माझा आता है ये कहने में.)मुझे याद है कैसे एक रुपये की चार आइसक्रीम और चार पतंगें आया करती थी.त्योहारों का एक अलग ही माझा था.होली,दीवाली या संक्रांति पर जो <span id="6_TRN_1a5">हुल्लड़बाजी </span> देखने को मिलती थी अब कुछ महंगाई तो कुछ संयुक्त परिवारों के टूटने से सब फीका सा हो गया है.</span></span></div><div><span> टेलीविजन से जुडी तो कई यादें है.शुरुआत में जब टी.<span id="6_TRN_oy">वी. का नया नया दौर शुरू हुआ था तब मोहल्ले में हमारा दूसरा घर था जिसमें लकड़ी के शटर वाला टी.वी. था. शनिवार और रविवार को आने वाली ब्लैक &<span id="6_TRN_pz">व्हाइट फिल्मों का लोग बेसब्री से इन्तजार करते थे.इनके बीच १५ मिनट का ब्रेक भी आता था जिसमे देश भक्ति गीत प्रसारित होते थे.तब दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था चिट्ठी-पत्री.इस प्रोग्राम को देखने के लिए भी मोहल्ले भर के बच्चे हमारे घर इकठ्ठा हो जाते थे.कई बार तो घर की साफ़ सफाई भी नहीं <span id="6_TRN_18k">हो</span> पाती थी.मम्मी बताती है की उस समय उन्हें एक ही कार्यक्रम सबसे अच्छा लगता था और वो था,डीडी का एतिहासिक ,जो कई बार आधे आधे घंटे तक भी चला करता था और जिसका कोई समय ही नहीं था,सोचिये कौनसा?</span></span></span></div><div><span><span> जी हाँ.....</span></span></div><div><span><span>'रुकावट के लिए खेद है'</span></span></div><div><span>हा हा हा...कुछ याद आया?</span></div><div><span>इस कार्यक्रम के दौरान ही उन्हें कुछ चैन मिलता था.</span></div><div><span> एक और अंतर जो मुझे देखने को मिलता है वो है आजकल के बच्चे और उनकी परवरिश का तरीका.आजकल के बच्चे जहां विडियो गेम,मोबाइल और कंप्यूटर के शौक़ीन है,indoor गेम्स खेलते है,हल्क और स्पाईडर<span id="6_TRN_197">मैन </span> के पोस्टर्स इनके कमरे में लगे होते है(इनके कमरा भी अलग होता है.)जबकि हमारे जमाने में ये सब इतना नहीं था(मतलब की फीलिंग ही दूसरी होती है.).पहले खुले मैदान बहुत थे.पक्की सड़कें नहीं थी.बच्चे बाहर गलियों में खेल सकते थे.आजकल पार्क भले ही बन गए है लेकिन वहाँ भी बौल लाना मना है,साइकिल लाना मना है,घास पर चलना मना है जैसी हिदायतें लिखी रहती है.पहले बहुत कम बच्चे ऐसे दीखते थे जिनकी आँखों पर मोटे लेंस वाले चश्मे लगे हो.लगता है आजकल वाले ज्यादा ही पढ़ेसरे हो गए है.</span></div><div><span> आजकल <span id="6_TRN_19i">की माएँ</span> भी बहुत बदल गई है(इसका मतलब ये नहीं की बच्चों के प्रति प्यार कम या ज्यादा हुआ हैं ).ये बात तो है की आजकल की सुपरमोम की तरह पहले की माएं बच्चों की छोटी मोटी बातों को उतनी गहराई से नहीं समझ पाती थी जो की सूचनाओं के ज्ञान की वजह से संभव हुआ है.ऐसा लगता हैं की आज के बच्चों की जिद पूरी करने को माँ बाप खुद ही आगे रहते है.पर हमारे जमाने में ऐसा नहीं था.</span></div><div> बेचारे छोटे छोटे बच्चे थके हारे पसीने से लथपथ स्कूल से लौटते और मम्मी जी गेट पर ही खड़ी मिलती,आते ही पहला सवाल-</div><div>होमवर्क मिला ??</div><div>हा हा हा....</div><div>बेचारे बच्चे की हालत खराब.लेकिन बात यही ख़तम नहीं होती, आगे भी-चल जल्दी से कपडे बदल,खाना खा और पढने बैठ जा.आने दे तेरे पापा को बहुत बिगड़ गया है.</div><div>आजकल के बच्चों जरा कल्पना करके देखो.</div><div> और सोचकर देखिये आज से तीस चालीस साल बाद के बच्चों को हम आज की किन किन बातों के बारे में बताएँगे जिन पर वो आश्चर्य करेंगे.जब सब कुछ हमारे सामने ही इतनी तेजी से बदल रहा है.याद है मोटोरोला के वो ऐन्तीने वाले भारी भरकम हैण्ड सेट्स जब इन कमिंग के भी ५-५,६-६ रुपये लगा करते थे.आज जिस तरह से पानी की किल्लत हो रही है कही ऐसा तो नहीं की जब हम इस जमाने के बारे में बच्चों को बताएं की कभी हम होली भी पानी से खेला करते थे और वो विश्वास ही न करे. </div><div><span> </span></div><div><span><span></span></span> </div><div><span><span></span></span> </div><div><span><span></span></span> </div><div><span><span></span></span> </div><div><span><span></span></span> </div><div><span><span></span></span> </div><div><span><span></span></span> </div><div> </div><div> </div></div>राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-45977512301328420952011-05-02T13:41:00.000-07:002011-05-02T13:41:07.430-07:00.....क्योंकि बहुत कुछ यहाँ 'फालतू' ही है.एक नई फिल्म देखी, नाम है 'फालतू'.इस फिल्म में युवाओं को पढाई फालतू लगती है.फिल्म में ज्यादातर गाने फालतू में डाले गये है.एक्टिंग और निर्देशन दोनों फालतू टाईप के है.ऐसे निर्माता निर्देशकों को लगता है कि दर्शकों के पास बहुत सारा फालतू का समय और पैसा है.पर आजकल और भी बहुत कुछ फालतू का हो रहा है और माना जा रहा है.<br />
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आजकल सरकार को आए दिन अलग अलग माँगों के लिए होने वाले प्रदर्शन और बंद फालतू के लग रहे है वहीं जनता को सरकार की आपत्तियाँ फालतू लग रही है.नक्सलियों और माओवादियों को पूरा लोकतंत्र ही फालतू का लग रहा है.आतंकवादियों को इंसान फालतू नजर आते है वहीं आत्महत्या करने वालों को अपना जीवन ही फालतू नजर आता है.<br />
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महिलाओं को लगता है कि उन पर पुरूषों ने कई प्रतिबंध फालतू के लगा दिये है जिन पर वो सवाल उठा रही है वहीं पुरुषों को इनके सारे सवाल ही फालतू के नजर आ रहे है.<br />
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गभीर लिखने वालों को हल्का फुल्का लेखन फालतू लगता है वही हल्का फुल्का लिखने वालों को लगता है जब सरल भाषा में समझाया जा सकता है तो फालतू में गंभीर क्यों लिखे.युवाओं को तो हिंदी भाषा भी फालतू की लगने लगी है. तो बच्चों को ईमानदारी और सादगी की सीख ही फालतू लगती है.<br />
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कुछ लोगों को हेलमेट पहनने का नियम फालतू लगता है तो कहीं बिगडेल नशेडी अमीरजादों को कार ड्राइव करते समय फुटपाथ पर सोये हुए गरीब ही फालतू नजर आते है .पुलिस वालों को जनता की कंपलेन फालतू नजर आती है.कई लोग जिन्हें अपने शरीर की चर्बी फालतू नजर आती है जिम जाते है तो कईयों को जीभ पर कंट्रोल करना फालतू लगता है,खा खा के इनकी हालत ऐसी हो गई है कि आधी सडक फालतू में घेर के चलते है कल को हो सकता है पीठ पर एक तख्ती लगानी पडे-जगह मिलने पर ही साइड दी जाएगी. <br />
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मेरे दादाजी को अखबार में विज्ञापन फालतू लगते है तो दादीजी को राशिफल के कॉलम के अलावा पूरा अखबार ही फालतू लगता है.वृद्धाश्रमों की बढती संख्या और बागबान जैसी फिल्में देखकर तो लगता है औलादों को अपने बुजुर्ग माँ बाप भी फालतू लगने लगे है.तो कई लोगों को बेटियों को पढाना ही फालतू लगता है.<br />
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यहाँ ब्लॉगिंग में भी कई लोग धर्म के नाम पर झगड रहे है वही कईयों को लगता है कि ये झगडे ही फालतू के है इनसे दूर रहा जाए जबकि इन झगडने वालों को लगता है जो हमारे बीच बोल ही नहीं रहा वो ब्लॉगर ही फालतू का है.लीजिए हमने भी एक फालतू की चेप ही दी.इसे झेल जाइये.राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-376672118624667332011-04-26T14:09:00.000-07:002011-04-26T14:09:15.867-07:00MLM का बढता चलनकुछ समय पहले हमारे एक किरायेदार भैया कई दिनों से पीछे पडे हुए थे एक स्कीम को लेकर.आप सात हजार रुपये दीजिए आपका रजिस्ट्रेशन एशिया की टॉप फाइव कंपनियों में से एक हमारी कंपनी में हो जाएगा इसके बाद आपको पाँच मेंबर जोडने होंगे और प्रत्येक ज्वायनिंग पर आपको तीन तीन सौ के चैक मिलेंगे फिर उन मेंबरों को भी 5-5 मेंबर जोडने पडेंगे और जैसे जैसे ये चैन बढती जाएगी आपको फायदा मिलता जाएगा.सारा हिसाब समझाया कि कैसे कुछ ही महीने में आप करोडपति बन जाएँगे.लेकिन मेंने इन सबके बारे में पहले भी सुन रखा था सो किसी तरह टालता रहा.इस चेन सिस्टम को एम एल एम यानी मल्टी लेवल मार्केटिंग कहते है आजकल ऐसी कंपनियाँ लगभग हर शहर में फैलती जा रही है.<br />
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ऐसे प्लान सुनने में बडे आकर्षक लगते है और समझाने वालों की भी दाद देनी पडेगी वो बताते ही इस तरह हैं कि आदमी चाहें जितना समझदार हो एक बार लालच के चलते इनके झाँसे में आ ही जाता है यहाँ तक की कई लोग लालच में आकर पैसा ब्याज पर लेकर भी इन स्कीमों में लगा देते है.लेकिन शुरू में तो कुछ फायदा होता है पर बाद में पता चलता है या तो कंपनी ही भाग गई या काम ही ठप्प पड गया यानी मेंबर ही नहीं मिल रहे.जितनी रकम लगाई उसमें से आधी ही वापस मिली बाकी डूब गई.यही नहीं कई कंपनियाँ तो सदस्यता नवीनीकरण के नाम पर फिर से कुछ रकम झटक लेती है.कई कंपनियों की धोखाधडी और रातोंरात भागने की खबरें आ चुकी है लेकिन फिर भी लोग सबक लेने को तैयार नहीं हैं. <br />
ऐसा नहीं है सभी कंपनियाँ फर्जी ही है कुछ कंपनियाँ लंबे समय से जमी भी हुई है जो सदस्यता राशि जमा कर अपने उत्पाद बेचने के लिये भी अपने मेंबरों को देती है जिन पर उन्हें कुछ कमीशन मिलेगा लेकिन ये प्रोडेक्ट बहुत महँगे होते है साथ ही रोजमर्रा में कम ही उपयोग में लाए जाते है यही कारण है कि कई लोग जो बहुत उत्साह से इनसे जुडते है बाद में उदासीन हो जाते है और अच्छी भली रकम गँवा बैठते है.ये एक तरीके से संबंध बिगाडू काम भी है कई लोग जो अपने मित्रों रिश्तेदारों को मेंबर बना लेते है वो खुद के साथ साथ दूसरों का भी नुकसान कराते है और इसी कारण कई बार संबंधों में खटास भी आ जाती है.जहाँ निवेश कम जोखिमपूर्ण और कंपनी विश्वसनीय हो वहाँ बात अलग है पर मेरा तो मानना है कि इन पचडों से बचना ही सही है वर्ना खाया पीया कुछ नहीं गिलास तोडा बारह आना.राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8925198473646084359.post-17495493672338624272011-04-26T01:10:00.000-07:002011-04-26T01:10:27.202-07:00.......तो फिर आप ही बताइये क्या करे?लैंगिक असंतुलन और कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के जितने भी ऊपाय है उनमें लडकियों को आत्मनिर्भर बनाने,बेटा बेटी में अन्तर न करने,पुरुषों द्वारा महिलाओं का सम्मान करने,दहेज जैसी परंपरा को खत्म करने,बेटियों द्वारा माँ बाप की अर्थी को कंधा देने की परंपरा की शुरुआत करने जैसी बातों पर बल दिया जा रहा है.हमने तो लोगों को ये तक समझाते देखा है कितनी ही कल्पना चावलाओं और किरण बेदियों को हमने संसार में आने से रोक दिया.तो क्या इनमें महिलाओं की क्षमता,उन्हें 'खर्च' न समझकर 'कुमाउँ पुत्री' समझने और असमानता खत्म करने का आह्वान आपको नहीं दिखाई देता?<br />
एक और मासूम सा प्रश्न बहन क्या केवल इसलिये चाहिये ताकि वो भाई को राखी बाँध सकें???भई वाह! वैसे बाता दूँ कि स्वार्थ स्वार्थ में फर्क होता है भाई को बहन की कमी महसूस हो रही है तो यह उसका एक स्नेहिल स्वार्थ है कोई भी भाई समझ सकता है जिसकी बहन न हो.कलाई सूनी रह जाने का प्रयोग प्रतीकात्मक है .<br />
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अभिशाप नहीं वरदान है,बेटा बेटी एक समान,अजन्मी बेटी की पुकार जैसे नारो द्वारा आम आदमी तक ये ही बात पहुँचाई जा रही है.उँची जाति वाले लडके जो लडकियों को दुत्कारते रहे है उनका घमँड अब टूट रहा है कुछ समय पहले किरन बेदी ने भी लडकियों के एक समूह से ये बात कही थी.लेकिन अब मैं कह रहा हूँ तो इसका कोई दूसरा ही अर्थ लिया जा रहा है.<br />
इतिहास में लडकियों की संख्या कम होने पर बहुपति प्रथा,अनैतिक व्यापार,बाल यौन शोषण आदि बढे है.चीन में हाल ही में जब लडकियों की संख्या अचानक से बेहद कम होने लगी तो वहाँ भी बलात्कार,यौन शोषण,अपहरण आदि घटनाओं में वृद्धि हो गई और वहाँ परिवार नियोजन के सख्त उपाय किये गये.ये तथ्य सच है.और प्राकृतिक असंतुलन व मानवता के खत्म होने की ही निशानी है.चलिये ये तथ्य न रखें तो आप ही बताइये आम आदमी को ये बात कैसे समझाऐ?इतना भर कह देने से काम नहीं चलेगा कि नेचुरल इंबैलेंस का खतरा है और न ही उसके समझ में आएगा.<br />
फिर भी फिर भी आपकी बात समझ रहा हूँ.आपका कहना है कि इन तथ्यों को रखने से समाज में एक गलत संदेश जा रहा है तो ये मेरे लिये भी सोचने का विषय है कि कैसे.मगर आप रूकिये तो सही, सुनिये तो सही आप तो मैंने कुछ कहा और पहले ही अपने हिसाब से तय करने बैठ गये कि इसका मतलब ये और उसका मतलब वो.तो आप ही बताएँ हम अपनी बात कैसे कहे?राजनhttp://www.blogger.com/profile/05766746760112251243noreply@blogger.com5