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Sunday, April 29, 2012

अश्लीलता:खुद महिलाओं का नजरिया क्या हैं?



यह तब की बात हैं जब मल्लिका शेरावत फिल्मों में आई ही थी.उनकी एक फिल्म के सेट पर उनसे किसी पत्रकार ने पूछा कि क्या आपको नहीं लगता कि फिल्मों में टू पीस बिकनी पहनना अश्लीलता को बढावा देना हैं,इसके जवाब में मल्लिका ने कहा कि आप मुझसे क्या पूछ रहे हैं उस हीरो से जाकर क्यों नहीं पूछते उसने तो वन पीस ही पहन रखा हैं.जाहिर सी बात हैं इस जवाब के बाद उस पत्रकार के पास पूछने के लिए कुछ नहीं रह गया था.मल्लिका का ये बयान उस समय बहुत चर्चा में रहा था.तब बहुतों को लगा होगा कि मल्लिका एक बोल्ड विचारों वाली आधुनिक महिला हैं. लेकिन इसके कुछ समय के बाद उनकी एक फिल्म मर्डर की शूटिंग चल रही थी इसके लिए मल्लिका को एक टॉपलेस दृश्य देना था जिसके लिए निर्माता महेश भट्ट ने उनकी स्वीकृति पहले ही प्राप्त कर ली थी.लेकिन जिस दिन ये दृश्य शूट किया जाना था तभी ऐन वक्त पर मल्लिका ने ऐसा करने से मना कर दिया.बाद में जब उनसे इसके बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था कि हाँ पहले मैं ऐसा दृश्य करने वाली थी लेकिन कहीं न कहीं मुझमें भी वही साधारण और पारंपरिक भारतीय लडकी बैठी हुई हैं जिसने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.यानी कि जो महिला अंग प्रदर्शन जैसे विषय पर भी समानता को लेकर इतने बोल्ड विचार रखती हो उस पर भी समाज की ही एकतरफा सोच हावी हैं वर्ना देखा जाए तो पुरुषों द्वारा भी तो टॉपलेस दृश्य करना आम बात हैं शायद ही किसी अभिनेता को इसमें झिझक महसूस हुई हों क्योंकि संस्कारों को कायम रखने की अपेक्षा समाज ज्यादातर महिला से ही करता हैं.
                    एक बार विद्रोही लेखिका तसलीमा नसरीन ने भी अपने किसी लेख में कहा था की मैं बचपन में शुरू से ही सोचा करती थी की जिस तरह मेरा भाई घर में आजादी से रह सकता वैसा मैं क्यों नहीं कर सकती,जिस तरह वह घर में बिना बनियान के केवल निकर में घूम सकता है वैसी आजादी मुझे क्यों नहीं है.क्या सिर्फ इसलिए की मेरी शारीरिक संरचना थोड़ी अलग है?जब मैंने पहली बार ये पढ़ा तो मैं कई देर तक सोच में पड़ गया क्योंकि देखा जाए तो तसलीमा ने ऐसी कोई अनोखी  बात नहीं कही लेकिन इस तरफ हमारा ध्यान क्यों नहीं जाता?ये कितनी स्वाभाविक सी बात है हमें गर्मी लगी तो कुछ देर के लिए शर्ट उतार ली लेकिन यही काम यदी महिला भी कर ले तो कौनसा आसमान टूट पडेगा? लेकिन सच तो ये है की हमारे लिए ऐसे किसी दृश्य की कल्पना करना भी बहुत भयानक है और पुरुष ही क्या खुद महिला भी ये नहीं सोच सकती की वह अपने ही घर में ही अपने पिता या भाई के सामने गर्मी से बचने के लिए ऐसा कोई जतन करे.लेकिन महिलाओं पर ही आपत्ति क्यों?शायद इसलिए की  हमें पुरुषों को ऐसा करते देख देखकर आदत पड़ गई है या शायद इसलिए की पुरुष महिलाओं को अपनी तरह से बेफिक्र रहते देखना ही नहीं चाहते.मुझे लगता है की दोनों बातें सही हैं.यदि हम भी शुरू से ही महिलाओं को पुरुषों की तरह ही ये सब करते देखते तो हमें कुछ भी गलत नहीं लगता और न महिलाओं के छोटे कपडे पहनने या बिना ऊपर का वस्त्र पहने घर में घूमने को अनैतिक समझा जाता.
                 लेकिन ऐसा भी नहीं है की केवल भारतीय समाज में ही ऐसा दोहरा रवैया देखने को मिलता हो बल्कि खुद आधुनिक समझा जाने वाला पश्चिमी समाज भी इससे पूरी तरह तो मुक्त नहीं ही हैं.तभी वहाँ भी गो टोपलेस या slutwalk जैसे मूवमेंट्स होते रहते हैं.लेकिन इतना जरूर है की वहाँ पर हमारी तुलना में उनके पास महिलाओं के कपड़ों के अलावा चिंता करने के लिए और भी विषय हैं.वहाँ पर महिलाओं से छेड़छाड़ और उनकी तरफ घूरना आदी कम होता हैं और महिलाएं भी शायद उतना असहज महसूस नहीं करती जितना हमारे यहाँ.और न ही महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए उनके कपड़ों को उतना जिम्मेदार ठहराया जाता है जितना हमारे यहाँ.शायद इसका कारण ये है की वहाँ पुरुष महिलाओं को पहले से ही छोटे कपड़ों में घुमते स्विमिंग पूल किनारे धुप सेंकते देखते रहे हैं इसलिए उनके लिए यह कोई कौतूहूल का विषय नहीं है,बल्कि भारत में भी कई आदिवासी जातियों में महिलायें नाम मात्र के ही वस्त्र पहनती हैं.वहाँ पुरुषों को स्त्री शरीर के उभारों और कटावों को लेकर कोई उत्सुकता नहीं हैं यहाँ तक की स्तनों को भी बच्चे को दूध पिलाने के काम आने वाले अंग से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता.वहाँ छेड़छाड़ या बलात्कार जैसे अपराधों के बारे में भी कभी नहीं सुना जाता.यानी कपडे कोई कारण नहीं है जबकि मुख्यधारा के समाज में कपड़ों को लेकर ही सबसे ज्यादा हाय तौबा मचाई जाती हैं.
                              सवाल यही है की महिलाओं के कपडे ही हमारे लिए इतने महत्तवपूर्ण क्यों हैं की उनके आधार पर ही उनको चरित्र प्रमाण पत्र दिया जाता है जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई मापदंड कभी नहीं रहा?एक बात और नहीं समझ आती की केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही स्त्री अशिष्ट रुपण अधिनियम जैसा कानून क्यों बना हुआ हैं?क्या हम मानकर चल रहे हैं की गरीमा सिर्फ महिलाओं की ही होती है जिसे बचाए जाने की बहुत जरूरत हैं?तो फिर यदी पुरुष भी केवल महिलाओं के ही अंग प्रदर्शन पर ही उंगली उठाते हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा,कैसी आपत्ति? क्योंकि वो तो पहले से ही केवल महिलाओं पर ही मर्यादा,इज्जत आदी भारी भरकम शब्द लादकर मनमानी करते आये हैं.मेरा उद्देश्य किसी कानून या मान्यता को गलत ठहराने का नहीं है लेकिन मैं जानना चाहता हूँ की ऐसा क्यों हैं.
                अभी हाल ही में एक अदालत ने फिल्म हेट स्टोरी के पोस्टरों को अश्लील  बताकर बैन करवा दिया था.यहाँ ब्लॉग पर भी एक पोस्ट में इसी फिल्म के एक पोस्टर पर कईयों ने आपत्ति की थी की यह पोस्टर अश्लील हैं.इस पोस्टर में नायिका की पीठ को पूर्णतः निर्वस्त्र दिखाया गया था.मैं मानता हूँ की इस पोस्ट में ऐसी तस्वीर की कोई जरूरत नहीं थी वैसे भी यहाँ नेट पर बहत से बच्चे भी आते हैं अतः ऐसा करने से बचना चाहिए क्योंकि हर चीज के लिए एक सही उम्र होती हैं.लेकिन मैं इस बात पर दुविधा में हूँ की इस तस्वीर को अश्लील माना जाए या नहीं.क्योंकि बहुत से पुरुष कलाकारों की भी तो ऐसी तस्वीरें छपती रहती हैं जिसमें पीठ क्या सीना भी नग्न दिखाया जाता हैं.यदी सलमान की कोई बिना शर्ट वाली तस्वीर वहाँ पोस्ट में डाल दी जाती तो क्या हमें वह भी अश्लील लगती?ये बात ठीक है की कई ब्लॉगर दूसरों का ध्यान खींचने के लिए भी इस तरह की तस्वीरें पोस्ट में डाल देते हैं उनका विरोध होना चाहिए लेकिन ये कैसे  तय किया जाएगा  की कौनसी तस्वीर या द्रश्य अश्लील हैं और कौनसा नहीं?हाँ पब्लिसिटी  के लिए कोई ऐसा करता है तो उसका विरोध होना चाहिये.
                     इसी तरह 'इण्डिया टुडे' के नवीनतम अंक में कवर स्टोरी पर भी बवाल मचा हुआ हैं जिसके मुख प्रष्ठ पर एक तस्वीर छापी हैं जिसमें एक महिला अपने हाथों से अपने अनावृत वक्ष को छुपाये हुए हैं.कवर स्टोरी भारतीय महिलाओं में सौन्दर्य की चाह में ब्रेस्ट सर्जरी के बढ़ते चलन को लेकर हैं.और शीर्षक 'उभार की सनक' जैसा कुछ दिया गया हैं.कई लोगों को आवरण प्रष्ठ पर दिए गए चित्र पर आपत्ति है परन्तु मुझे तो इसमें कुछ ख़ास बात बात नही लगी.यदी शीर्षक ही ऐसा है तो चित्र किसी गुलदस्ते या इन्द्रधनुष का तो होने से रहा.पर एक बार मान लीजिये की आवरण कथा लड़कों में डोल्ले शोले बनाने ले लिए जिम जाने के बढ़ती प्रवृति को लेकर होती और कवर पृष्ठ पर जोन अब्राहिम की मांसपेशियां दिखाती कोई तस्वीर होती तो क्या उस पर भी हंगामा मचता ? जोन को तो तब अपना सीना छुपाने की भी जरुरत नहीं पड़ती.
                पुरुष यदी महिलाओं के चित्रों आदी पर आपत्ति करता हैं तो माना जा सकता है की वह खुद अपने को बंधन मुक्त रख  महिलाओं को संस्कारों के नाम पर बांधें रखना चाहता हैं.ताकि महिलाओं को खुद अपने बारे में सोचने की ही फुर्सत न मिलें.लेकिन खुद महिलायें और खासकर वो महिलायें जो समानता जैसे मूल्यों में विश्वास रखती हैं और पित्रसत्ता  की बारीक बुनावट को भी समझती हैं वो इस बारे में क्या सोचती हैं?क्या उन्हें भी सलमान,जोन या शाहिद की बजाय केवल  महिलाओं की ही ऐसी तस्वीरें अश्लील लगती हैं?कहीं ऐसा तो नहीं की ये महिलायें भी किसी दूसरी महिला को कम कपडे या बिकिनी जैसे परिधानों में देखकर ये तो नहीं सोचती की ये महिलायें उनकी(स्त्रियों की) गरीमा को कम कर रही हैं?इसके लिए मुझे तमाम महिलायें माफ़ करें लेकिन कभी कभी मुझे लगता है की महिलाओं को भी अपनी उस पारंपरिक और लगभग पवित्र छवि से मोह हो गया है जो उनके लिए कभी पुरुषों ने गढ़ी थी जबकि वो खुद ही ये भी कहती हैं की कपडे कोई मापदंड नहीं होना चाहिए.पुरुषों का बचना तो मुश्किल हैं ही लेकिन सच तो ये हैं की खुद महिलायें भी इन सवालों से बच नहीं सकती बल्कि ये सवाल उनके सर पर भी भूत बनकर नाचते रहेंगे.नहीं.... मैं किसी की सोच को गलत नहीं बता रहा हूँ और न ही मुझे इसका कोई हक़ है लेकिन जानना चाहता हूँ की इसके पीछे कारण क्या हैं और मेरा सोच गलत हैं तो आप कृपया मुझे सही करें वैसे भी यहाँ किसीकी सोच या निर्णय अंतिम कहाँ होता हैं.
                    महिलायें कह सकती हैं की अंग प्रदर्शन करने वाली महिलाओं की बजाय वे पुरुषों की भोगी व वासनात्मक प्रवर्ति का विरोध करती हैं.यदि ऐसा हैं तो ये बात अच्छे अन्न की भांति सराहनीय हैं.ऐसा होना चाहिए और शायद हो भी रहा है लेकिन एक बार सवाल फिर से दोहरा दूं की इसके लिए उन चित्रों को अश्लील क्यों कहा जाए?यहाँ तो दोष पुरुष की दृष्टी का हैं लेकिन क्या चित्र को अश्लील बताकर या खुद महिला पर ही उंगली उठाकर हम उन्हीं पुरुषों का ही तो पक्ष मजबूत नहीं कर रहे जो समाज में महिला के प्रति बढ़ते छेड़छाड़ या बलात्कार जैसे अपराधों के लिए महिलाओं द्वारा अंग प्रदर्शन को ही जिम्मेदार ठहराते हैं.
                        और जहां तक बात हैं पुरुषों द्वारा आपत्ति का सवाल है की कोई मल्लिका या पूनम पाण्डेय स्त्री की गरीमा को कम कर रही हैं या इनकी वजह से महिलाओं का सम्मान कम हो जायेगा तो उन्हें भी ये सोचना चाहिए की ग्लेमर जगत में इमरान हाशमी से लेकर सलमान या मिका तक सभी ये ही तो कर रहे हैं तो क्या इनकी वजह से महिलाओं ने हमारा सम्मान करना बंद कर दिया फिर कुछ महिलाएं भी यही सब कर रही हैं तो इससे हमें क्यों फर्क पड़ना चाहिए और हम उन्हें महत्त्वा ही क्यों दें?
                और वैसे भी जहाँ महिलायें घूंघट या बुर्के में रहती हैं वहाँ क्या उनका बहुत सम्मान किया जाता हैं और क्या उन्हें वहाँ बराबरी के सारे अधिकार हासिल हैं?ये सब भी तो महिलाएं करके देख चुकी हैं लेकिन सच तो ये है की सम्मान तब होगा जब पुरुष मन से ऐसा चाहेंगे वरना महिलायें कुछ भी कर लें पुरुषों की सोच महिलाओं को लेकर नहीं बदलने वाली.फिलहाल तो सबसे ज्यादा जरूरी यही है की कोई कैसे कपडे पहने या कैसे नहीं और कितना शरीर दिखाए या कितना नहीं इसमें किसी दुसरे का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.शरीर जिसका है वही इसके बारे में तय करें.समय के साथ कई चीजों को लेकर सोच बदलती रहती हैं जैसे कुछ साल पहले तक किसी महिला के स्लीवलेस कुर्ता या जींस आदी पहनने पर ही दूसरों की नजरें टेढ़ी हो जाती थी खुद महिला भी भीड़ में असहज महसूस करती थी पर अब ऐसा कम ही होता है या होता ही नहीं हैं.पता नहीं कितना सही हैं लेकिन कई जगह पढ़ा है की अंग्रेजों के आने से कुछ समय पहले तक भारत में कई जगहों पर स्त्री और पुरुष ऊपर का वस्त्र पहनते ही नहीं थे.यदि ऐसा है तो आज ये हालत कैसे हो गई की महिलाओं के कपडे ही हमारे लिए उनके चरित्र का पैमाना बन गए?
जेम्स  बोंड महिला विरोधी हैं?
कई लोगों का मानना है की जेम्स बोंड का किरदार महिला विरोधी  हैं.यहाँ तक की होलीवुड  की कई नायिकाएं भी इसी कारण जेम्स बोंड की फिल्मों में काम करने से मना कर चुकी है.क्योंकि उनका मानना है की जेम्स बोंड को महिलाओं के जज्बातों की क़द्र नहीं हैं वह अपने काम निकलने के लिए उन्हें मोहरा बनता हैं और फिर उनसे किनारा कर लेता हैं यहाँ तक की वह अलग अलग देशों में जाता है और अपने अहम् की संतुष्टी के लिए कई महिलाओं के साथ बेड साझा करता हैं.लेकिन मुझे ये नहीं समझ आता की हम शारीरिक संबंधों जिनमे महिला और पुरुष की बराबर की भागीदारी  होती हैं वहाँ भी हमेशा पुरुष को शिकारी और महिला को शिकार के रूप में ही क्यों देखते हैं?यही काम तो लारा क्राफ्ट या चार्लीज़ एंजेल्स जैसी फिल्मों में नायिकाएं भी तो करती हैं लेकिन पुरुषों को तो ये शिकायत नहीं होती की उनका इस्तेमाल हो रहा है.कुछ लोग यहाँ छुरी या खरबूजे वाली मिसाल दे सकते हैं लेकिन मैं यही जानना चाहता हूँ की स्त्री को हम खरबूजा ही क्यों मान रहे हैं.इसके अलावा जेम्स बोंड की बोस ही एक महिला है जिसका नाम ऍम हैं और उसके आदेश के बिना जेम्स बोंड कुछ नहीं कर सकता और उसे लगभग हर फिल्म में अपनी ही नायिकाओं से पिटाई खाते हुए भी दिखाया जाता है फिर भी उसे महिला विरोधी  क्यों कहा जाए या हमारी आदत ही हो गई है स्त्री को हर बार इतना कमजोर मानने की जैसे कोई भी पुरुष उसका इस्तेमाल कर सकता है?

30 comments:

राजन said...

पोस्ट में कुछ ताजा प्रसंग जरूर जोडे गये हैं लेकिन मैं बहुत पहले इसे लिखने का वायदा कर चुका था.यहाँ देखिए-
http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/03/blog-post_27.html

Sunil Kumar said...

सार्थक और जरुरी पोस्ट आँखें खोलने में सक्षम

रचना said...

tumko jyadaa likhna chahiyae aur niyamit
aalekh baeshak chhotae ho par niyamit ho

रचना said...

हिलाओं को भी अपनी उस पारंपरिक और लगभग पवित्र छवि से मोह हो गया है जो उनके लिए कभी पुरुषों ने गढ़ी थी

conditioning isii ko kehtae haen
jab aap ko maansik rup sae itna kund kar diyaa jaayae ki aap ki soch uskae jaesi hi ho jaaye jisnae aap ko kund kiyaa

slave mentality yahii hotii haen

राजन said...

सुनील कुमार जी,
हौसला अफजाई के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद!
रचना जी,
हाँ मुझे भी लगता हैं कि मैं बहुत आलसी हो गया हूँ.पर नियमित लिखने की भी कोशिश करूँगा.कई बार ऐसा भी होता हैं कि हम जिस विषय पर पोस्ट लिखना चाहते हैं उस पर पहले ही किसीकी पोस्ट आ चुकी हो ऐसे में कई बार लिखना टालना पडता हैं.
और इधर कुछ मित्रों को लगता हैं कि मैं किसी बहस को ज्यादा ही गंभीरत से ले लेता हूँ और नाराज हो जाता हूँ इसीलिए वो मुझसे बहस करने से बच रहे हैं लेकिन कहीं आपके साथ भी तो ऐसा नहीं यदि ऐसा हैं तो बताना चाहूँगा कि मैं कभी किसी बात पर किसीसे भी नाराज नहीं होता हाँ कई बार लगता हैं कि सामने वाले को हमारे बारे में कोई गलतफहमी तो नहीं हो गई इसलिए खुलकर लिखना पडता हैं लेकिन यहाँ हमारे सिर्फ शब्द दिखाई देते हैं चेहरे पर आने वाले भाव नहीं शायद इसीलिए लोगों को लगता हैं कि मैं नाराज हो रहा हूँ जबकि आज तक ऐसा नहीं हुआ और मेरे ब्लॉग पर चाहे कितनी ही कट्टर असहमति क्यों न हो उसका स्वागत हैं.इसलिए खुलकर अपनी बात कहें.जास्ती सोचने का नहीं :-)
बहरहाल टिप्पणी के लिए शुक्रिया!

राजन said...

अच्छा ये टिप्पणी भी है!
कंडीशनिंग के बारे में आपका कहना बिल्कुल सही हैं रचना जी.और इससे मुक्त होना भी बहुत मुश्किल हैं लेकिन आपने पोस्ट में देख हो तो मैंने आम महिलाओंके बजाए उन महिलाओं की सोच पर ज्यादा जोर दिया है जो स्त्री पुरुष समानता की अवधारणा में यकीन करती हैं.यदि वो भी ऐसा सोचती हैं तब ये चिंता की बात हैं.

दिनेशराय द्विवेदी said...

तमाम पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करने वाला अच्छा आलेख है। बधाई!

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत दिनों बाद ऐसा संतुलित और सटीक आलेख पढ़ा ..... हर बात विचारणीय है और सही ढंग से प्रस्तुत की है आपने .....

रचना जी से सहमत हूँ.... नियमित लिखने की कोशिश करें .....

राजन said...

द्विवेदी जी और मोनिका जी प्रोत्साहन के लिए आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद!
नियमित लिखने की पूरी कोशिश करूँगा.

रचना said...

उन महिलाओं की सोच पर ज्यादा जोर दिया है जो स्त्री पुरुष समानता की अवधारणा में यकीन करती हैं.

rajan
stri purush samantaa ki avdharna mae yakin har naari rakhte haen

baat implement karnae ki haen

apnae upar bhi aur samaj kae upar bhi aur yae implementation shuru chhoti baat sae hota haen

apnae ghar sae hotaa haen
jaese agar maere ghar mae mera nephew aur neice jo dono ek hi aayu kae haen aayae haen to mae khanaa khilaatae samay agar apni neice sae yae umeed karun ki wo pehlae bhaai ko khilaa dae phir maere saath khud khaae to yae asmaantaa haen kyuki mae yae umeed sirf is liyae kartee hun kyuki wo ladki haen

conditioning itni bhayaanak hotii haen ki ham naa chahtey huae bhi uskaa shikaar hotae haen
yae tab toottii haen jab ham praytan kartae haen har samay

log betiyon ko mera beta haen mera beta haen kehtae kyun
kyaa yae sahii haen
agar aap kisi ko bhi kisi kae samaan manae to phir betii hi kahey

vijay kumar sappatti said...

post nischit roop se hi ek soch ko janm deti hai . praoblem sirf maansikta me hi hai . na kapdo me aur na hi body me ..

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

कहा जाता है की , agar किसी झूठ को सौ बार bola jaye तो वो भी सच लगने lagta है. yhi baat mahilao के ऊपर लागू होती है . उन्हें पुरुषवादी समाज ने बार झूठ बोल कर उसे सच मानने पर मजबूर कर दिया है .
वैसे बहुत अच्छी बात uthai है आपने ..बधाई
www.बेबकूफ.ब्लागस्पाट.कॉम

Unknown said...

आज जब बाज़ारवाद हर जगह हावी है.

Shilpa Agrawal said...

A thought aptly focussed on gender bias. I am from a small town of Northern India where eve teasing was a nuisance and an evil that throughout lingered on the personality growth of young girls and women. How you dress sure doesn't effect the psyche of perverts.
After having lived in the US for more than 6 years , I can say I can walk and go anywhere feeling safe even during midnight. Indian mentality will take a little long to change,even here if an Indian male sees an American dressed up as per modern standards would not care about it so much but as soon as he sees an Indian girl dressed up according to same parameters he would make her a subject to giggle upon or ugly glances.

Kudos to you on bringing this up... keep writing

Pallavi saxena said...

आपकी इस पोस्ट पर क्या कहूँ और कहाँ से शुरू करूँ कुछ समझ ही नहीं आरहा है। कहने को बहुत कुछ है अच्छा खासा डेबेट हो सकता है इस विषय पर, मगर एक कमेंट में सब लिख पाना संभव नहीं।
फिलहाल इतना ही कह सकती हूँ, कि इस मामले में केवल नज़र-नज़र की बात है। जिसकी नज़रों में सुंदरता होगी उसे हर चीज़ सुंदर ही नज़र आयेगी और जिसकी नज़रों में ही गंदगी होगी उसे हर जगह गंदगी ही नज़र आयेगी।
अब उदहारण के तौर पर जब हम किसी छोटे बच्चे को बिना कपड़ों के नंगा देखते है तो हमको अटपटा नहीं लगता क्यूँ? क्यूंकि उसके प्रति हमारी नज़रों में कोई भाव है ही नहीं,लेकिन यदि किसी वयस्क व्यक्ति को हम निर्वस्त्र देखलें फिर भले ही वो इंसान स्त्री हो या पुरुष तो कुछ लोगों के मन में शर्म तो कुछ के मन में वासना जन्म ले लेती है। इस आधार पर यही कहा जा सकता है, कि सब संस्कारो और आपके आस पास के माहौल का खेल है। जिन संस्कारों और जिस तरह के माहौल में आपकी परवरिश हुई होगी वैसा ही किसी भी चीज़ के प्रति आपका नज़रिया बनेगा। फिर चाहे वह स्त्री पुरुष का मामला ही क्यूँ न हो।

virendra sharma said...

अश्लीलता :खुद महिलाओं का नजरिया क्या है ' .विचार उत्तेजक पोस्ट है .

'स्त्री अशिष्ट रुपण अधिनियम जैसा कानून क्यों बना हुआ हैं?क्या हम मानकर चल रहे हैं की गरीमा सिर्फ महिलाओं की.......' मानिए

भाई साहब सारा खेल मन के आँखों के अनुकूलन का है मेंटल कंडिशनिंग का है . यकीन

मानिए मैंने अमरीका के हेल्थ क्लब /जिम में मर्दों को पूर्ण निर्वस्त्र अपनी संतानों को निह्लाते वस्त्र पहनाते , देखा है सोना बाथ लेते बंद कमरे में भांप सेंकते औरत मर्दों को देखा है .चोली रही है अधो -वस्त्र गौर नहीं किया .उस परिवेश में सब कुछ सहज लगा .कौतुक ज़रूर हुआ लेकिन सिर्फ एक दफा .

जैसा देश ,जैसा भेष वैसा अनुकूलन .अब टॉप कैपरी नेशनल पैरहन बन रही है जींस भी ठहर गईं हैं .अश्लीलता जैसा यहाँ कुछ भी नहीं है सवाल फबने का है ग्रेस में दिखने का है .काया के अनुकूल कुछ भी तो पहनिए ,पर पहनिए तो सही ,न पहनने से बहुत अच्छा है ..



कृपया यहाँ भी पधारें -
डिमैन्शा : राष्ट्रीय परिदृश्य ,एक विहंगावलोकन

http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
सोमवार, 30 अप्रैल 2012

जल्दी तैयार हो सकती मोटापे और एनेरेक्सिया के इलाज़ में सहायक दवा
कैंसर रोगसमूह से हिफाज़त करता है स्तन पान .

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Posted 1st May by veerubhai

anshumala said...

@लेकिन सच तो ये है की सम्मान तब होगा जब पुरुष मन से ऐसा चाहेंगे वरना महिलायें कुछ भी कर लें पुरुषों की सोच महिलाओं को लेकर नहीं बदलने वाली
वही बात कहा जा रहा है की पुरुषो की सोच बदलने का प्रयास किया जा रहा है इसलिए कहा जाता है की आप महिलाओ को बस देह समझ कर ना देखे और देह की ही बात ना कहे स्त्री बस देह मात्र नहीं है किन्तु स्त्री समानता की बात करने वाले भी कहते है की देह ही सब कुछ है दोनों एक दूसरे के प्रति मात्र देह के कारण आकर्षित होते है पर ऐसा नहीं है | यदि आप उसे मात्र देह और उसके प्रति आकर्षण को उसकी देह का आकर्षण समझेंगे तो उसके प्रति आप कभी भी वो सम्मान आप मान में नहीं लापयेंगे जो आना चाहिए |

@फिलहाल तो सबसे ज्यादा जरूरी यही है की कोई कैसे कपडे पहने या कैसे नहीं और कितना शरीर दिखाए या कितना नहीं इसमें किसी दुसरे का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.
बिल्कुल यही कारण है की ज्यादातर ने उस माडल को कुछ नहीं कहा जिसकी तस्वीर थी सवाल पत्रिका के नियत पर उठाया जा रहा है |
प्रवीण जी की पोस्ट पर दी लिंक पर जाइये एक लोगों ने वो कवर अपने ब्लॉग पर लगाया हुआ है बाकियों ने नहीं क्यों ? यदि किसी को भी उस तस्वीर पर कोई आपत्ति नहीं थी तो हर किसी को डंके की चोट पर वो तस्वीर अपने ब्लॉग पर डालनी चाहिए थी किन्तु बाकियों ने नहीं डाली लोगों का डर नहीं था क्योकि जब आप तस्वीर का सीधे तौर पर समर्थन कर रहे है तो उसको अपने ब्लॉग पर डालने पर कोई क्या कहता पर ज्यादातर ने उसे नहीं डाला क्यों | शायद सभी के अवचेतन मन में ये बात थी की ये तस्वीर कही ना कही कुछ तो गलत है और वो टी आर पी के लिए थी और उसकी उतनी जरुरत नहीं थी जितनी की वो खुद बता रहे थे | आप भी मेरी बात का समर्थ ही कर रहे है जब आप ने कहा है की गलिया तो दो फिल्म में है पर दोनों में फर्क है वही मै भी कह रही हूं की एक में फिल्म की जरुरत है तो दूसरी में फिल्म को बेचने की जरुरत के कारण वो फर्क आप खुद पहचान रहे है | जैसा की अली जी की पोस्ट पर प्रकाशित आदिवासी महिला की फोटो, कौन कहेगा की वो टी आर पी के लिए डाली गई है नियत का फर्क समझ आ रहा है ना वही नियत पर सवाल पत्रिका पर भी उठाया जा रहा है की पत्रिका की नियत ठीक नहीं है | किसी पत्रिका के स्टाल पर दुकानदार खुद उसे सबसे आगे रख कर बेचेगा और खरीदने वाले की पहली नजर उसी पत्रिका पर पड़ेगी |

anshumala said...

@ मैं मानता हूँ की इस पोस्ट में ऐसी तस्वीर की कोई जरूरत नहीं थी वैसे भी यहाँ नेट पर बहत से बच्चे भी आते हैं अतः ऐसा करने से बचना चाहिए क्योंकि हर चीज के लिए एक सही उम्र होती हैं.
सही कहा हर काम के लिए एक उम्र होती है जब हम अपने बच्चो को हिंसक दृश्यों से बचाते है तो इन दृश्यों से क्यों नहीं बचाये जो स्त्री को एक गलत रूप में प्रदर्शित करती है एक शरीर एक उत्पाद के रूप में जो उनके मन में कुछ अलग तरह के विचार ला सकती है उनके सोचने की क्षमता को प्रभावित कर सकती है | और सभी अपने बच्चो से इतने नहीं खुले नहीं होते है की इन सब चीजो को सामान्य तरीके से ले सके इसलिए नहीं की वो अपने बच्चो से कुछ छुपाना चाहते है कई बार आयु ये नहीं होती है तो कई बार समझाना मुश्किल हो जाता है |

प्रवीण जी की पोस्ट पर दी आप की टिप्पणी अभी ध्यान से पढ़ रही हूं उन पर बाद में कुछ का जवाब देती हु :)
और ये मित्रो की नाराजगी वाली बात कही मेरे लिए तो नहीं कही गई है ?

राजन said...

हा हा हा...
अंशुमाला जी आपने मेरी हर बात का खुद ही जवाब दे दिया(हालाँकि मैंने अभी आपकी टिप्पणियाँ जल्दबाजी में ही पढी हैं).समय मिलते ही आपकी हर बात का जवाब देता हूँ.
इतने विस्तृत और विचारणीय कमेंट्स के लिए शुक्रिया :)

S.M.Masoom said...

राजन जी एक तरफ तो आप कहते हैं ब्लॉग पोस्ट पे महिला की खुली पीठ वाली तस्वीर नहीं दिखानी चाहिए क्यों कि यहाँ बच्चे भी आते हैं वंही दूसरी तरफ आप महिलाओं के कम से कम कपडे पहनने ज\को भी सही समझते हैं क्यों कि इस से उनमे उत्सुकता कम हों जाती है | बात कुछ उलझ गयी है | आप का लेख विचार करने योग्य अवश्य है लेकिन समस्या का समाधान नहीं दे पा रहा है |
see this also

http://www.payameamn.com/2012/05/blog-post_09.html

S.M.Masoom said...

राजन जी एक तरफ तो आप कहते हैं ब्लॉग पोस्ट पे महिला की खुली पीठ वाली तस्वीर नहीं दिखानी चाहिए क्यों कि यहाँ बच्चे भी आते हैं वंही दूसरी तरफ आप महिलाओं के कम से कम कपडे पहनने ज\को भी सही समझते हैं क्यों कि इस से उनमे उत्सुकता कम हों जाती है | बात कुछ उलझ गयी है | आप का लेख विचार करने योग्य अवश्य है लेकिन समस्या का समाधान नहीं दे पा रहा है |
see this also

http://www.payameamn.com/2012/05/blog-post_09.html

राजन said...

अंशुमाला जी,देर से जवाब देने पर किस तरह से दूसरों को असुविधा होती हैं इसे समझता हूँ.लेकिन मैं कुछ जरूरी कामों में आजकल व्यस्त हूँ जिन्हें टाला नहीं जा सकता था इसके लिए माफी चाहता हूँ.आपने यहाँ अपनी बात रखने की सोची इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं हैं बल्कि खुद मुझे प्रवीण जी के ब्लॉग पर 'प्रत्युत्तर दें' वाला ऑप्शन प्रयोग करने में असुविधा हो रही थी.
अब आपकी शिकायतों को क्रमवार लेता हूँ.
अंशुमाला जी,यहाँ हम सिर्फ सवाल उठा रहे हैं कि देह के स्तर पर स्त्री पुरुष के बारे में समाज का रवैया इतना दोगला क्यों हैं और इसे दूर कैसे किया जा सकता हैं.चिंता मत कीजिए यहाँ ऐसा कोई प्रगतिशील फतवा नहीं दिया जा रहा हैं कि बस अब महिलाओं को कम कपडों में या बिना कपडों के घूमना शुरू कर देना चाहिए और न उन्मुक्त सेक्स संबंधों की वकालत की जा रही हैं.जब हम कहते हैं कि समाज को महिलाओं के शराब पीने को भी सहजता से लेना चाहिए जैसे पुरूष को लिया जाता हैं,तब क्या हमारा मतलब ये होता हैं कि महिलाओं को अब बस सारे काम धाम छोडकर दारू के आड्डों पर कब्जा कर लेना चाहिए???
ये तो हमें भी पता हैं कि ऐसा नहीं हो सकता और न हमारे कहने से महिलाएँ ऐसा करने लगेंगी.लेकिन बात तो की जा सकती हैं,सवाल तो उठाए जा सकते हैं?वर्ना इस हिसाब से तो तस्लीमा तो मूर्ख ही साबित होती हैं.लेकिन ये सवाल कुछ सोचने को मजबूर करते हैं कि नहीं?इस कवायद का उद्देश्य ये हैं कि लोग कम से कम सोचने को तो मजबूर हों.यदि हम नियति के भरोसे ही सब कुछ छोडना चाहते हैं तो फिर कुछ भी लिखने की जरूरत नहीं हैं.
इस पर चर्चा करने से होता ये हैं कि लोग जो पहले महिलाओं पर सार्वजनिक रुप से पाबंदी की बात करते थे/हैं वो खुलकर रोक टोक नहीं लगा पाते भले ही उनकी मानसिकता अभी भी ये ही हो.क्या भारतीय समाज को देखते हुए ये कोई कम राहत की बात हैं.हालाँकि मेरा मानना हैं कि देह की आजादी जैसे शब्दों से भ्रम उत्पन्न होता हैं इसीलिए मैं इससे बच रहा हूँ पर इतना जरूर चाहता हूँ कि कई बातों(देह से जुडी) को लेकर सिर्फ महिला में व्यर्थ की हीन भावना आती हैं या पैदा की जाती हैं वो जरूर दूर होनी चाहिए.वैसे मैं मानता हूँ कि मेरे और प्रवीण जी के बात करने में थोडा अंतर तो हैं लेकिन कुल मिलाकर बात एक जैसी ही हैं.
जारी...

राजन said...

अंशुमाला जी माना की देश के अलग अलग भागों में खुलापन कम ज्यादा हैं लेकिन कुछ तो ऐसा किया जाए कि बाकी के लोग खुलेपन को अपनाएँ या उसका विरोध न करें वर्ना तो फिर ऐसी कोई ऐसी व्यवस्था करनी पडेगी कि कोई बडे शहर की लडकी जींस या स्कर्ट पहनकर गाँव देहात में जाए ही नहीं क्योंकि वो बेचारे अभी खुलेपन को नहीं स्वीकार पाए हैं और उन्हें अभ्यस्त होने में समय लगेगा.हम ये तो जान ही सकते हैं न कि वहाँ ऐसा खुलापन क्यों नहीं आ पा रहा?
माना कि हम उस आदर्श स्थिति में नहीं आ पाए हैं कि स्त्री पुरूष के शरीर को एक ही नजर से देखा जाए लेकिन ये बात मानकर ही बैठे रहेंगे तो सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा और महिला पर आपत्ति कभी कम नहीं होंगी.महिलाओं को देखकर पुरुष आकर्षित होता हैं इस बात से महिला उत्पाद हो जाती हैं तो फिर महिलाओं को बुर्के में ही रहना पडेगा बल्कि तब भी कोई फायदा नहीं.आप कह सकती हैं कि आप इस बात का नहीं उस बात का विरोध करती हूँ(हालाँकि किस बात का विरोध किया जाए या नहीं इसमें मतभेद हो सकते हैं जैसे इंडिया टुडे की फोटो वाला मामला) पर यहाँ बात आम समाज की ही हो रही हैं न कि कुछ प्रबुद्ध महिला पुरुषों की.
जारी...

राजन said...

अंशुमाला जी,
आपको क्या लगता हैं कि आप पुरूष को समझाती रहेंगी कि स्त्री को बस देह ही मत समझो तो क्या वह मान लेगा?हाँ ऊपर से भले ही संस्कारवान दिखे पर दिमाग में तो उसके देह ही देह छाई रहेगी.आप जिन विज्ञापनों की बात कर रही हैं वो नहीं भी थे तब भी तो पुरूष स्त्री को बस देह ही समझता था या आपके हिसाब से ये बस अभी ही शुरू हुआ हैं.आप कोशिश कर सकती हैं कि पुरूष उसे देह न समझे लेकिन पुरुष पर ये बातें तब तक कोई असर नहीं करेंगी जब तक कि स्त्री देह को लेकर इस हद तक उत्सुकता बनी रहेगी.मैंने विभिन्न समाजों के पुरुषों की आदतों की तरफ इसलिए ध्यान दिलाया हैं.अब चाहे ये सच्चाई कितनी ही कडवी क्यों न हो लेकिन सच ये ही हैं.आप अभी भी घूम फिरकर देख सकती हैं कि कैसे महिलाओं से जुडा कोई भी मुद्दा उठाओ उसे देह पर ही लाकर छोड दिया जाता हैं और ये कहकर ही टालने की कोशिश जाती हैं कि देखो कैसे महिलाएँ अश्लीलता फैला रही रही हैं.
और वो सब छोडिये पर आप ये तो मानती हैं न कि स्त्री देह कितनी ढकी या उघडी रहती हैं इससे महिलाओं के सम्मान का कोई लेना देना नहीं हैं क्योंकि यदि ऐसा है तो इस हिसाब से हम ही महिलाओं का सबसे ज्यादा सम्मान करते हैं.लेकिन सच्चाई ये नहीं हैं.और अब इस बात की जरूरत हैँ कि देह से ऊपर उठा जाए.और किसी महिला की भी नग्न या अर्धनग्न तस्वीरों को अश्लील न माना जाए बल्कि इसे कोई विवाद का विषय ही न बनाया जाए.सम्मान वगेरह की कोशिश जिन्हें करनी हैं करते रहें वो जब पुरुष समझेंगे तब समझेंगे लेकिन महिलाओं को तब तक राहत कैसे मिले?पश्चिम के समाज को ही आप देखें तो वहाँ पर महिलाओं को पुरूष की घूरती आँखे परेशान नहीं करती कहीं भी आने जाने में ज्यादा परेशानी नहीं होती और न लडकिया अपने उन अंगो को छुपाने का प्रयत्न करने में लगी रहती हैं जो महिला होने की पहचान हैं,अपने साथ हुई ज्यादती को बताने में उतना नहीं हिचकिचाती.लडके लडकियों की दोस्ती सहज मानी जाती हैं,स्त्री पुरूष डॉक्टरों द्वारा वपरीत लिंगियों की चिकित्सा करना उतना कठिन नहीं जैसा कि कई बार हमारे यहाँ हो जाता हैं और सबसे बडी बात वहाँ महिलाओं से जुडे तमाम दूसरे जरुरी मुद्दों पर भी बात होती हैं न कि सिर्फ देह पर.क्या आपको नहीं लगता कि यदि ऐसा हो जाए तो महिलाओं की आफत बहुत कम हो जाएगी?भले ही पुरुष महिलाओं का सम्मान न करता हो.

राजन said...

अंशुमाला जी,यहाँ कहने का मतलब हैं कि अश्लीलता को लेकर विवादों के केंद्र में स्त्री देह नहीं रहनी चाहिए और न महिलाओं की तस्वीरों को अश्लील कहा जाना चाहिए या इसे महिलाओं की इज्जत वगेरह से जोडा जाना चाहिए क्योंकि ये ही बातें महिलाओं में हीन भावना भरती हैं न कि ये कि पुरुष उन्हें देखकर आकर्षित होता हैं.लेकिन ऐसा होता नहीं हैं.
हाँ..हाँ पता हैं आप यही कहेंगी न कि आपने ऐसा नहीं किया और उस मॉडल को किसीने गलत नहीं कहा(हालाँकि चित्र को फिर भी कई लोगों ने अश्लील कहा).लेकिन समाज तो कहता हैं.और यही ऐसे बहुत से मामले हो चुके हैं जिनमें सारी वीरता बस महिला के चित्रों के खिलाफ दिखाई गई.महिलाओं द्वारा भी और पुरुषों द्वारा भी.इसके कहीं न कहीं लोगों की बस ये ही धारणा पुष्ट होती हैं कि अश्लीलता फैल रही हैं तो सिर्फ महिला की वजह से.और ये सब बहाने बाजी हैं कि हमने मॉडल को कुछ नहीं कहा?क्यों इसके पीछे क्या तर्क हैं?फिर उसकी नीयत पर ही शक क्यों नहीं?और इस गलत काम में वह भागीदार क्यों नहीं?
जारी...

राजन said...

बच्चों वाली बात आपकी सही हैं वैसे भी कोई माँ बाप अपने बच्चों को ऐसी तस्वीरें नहीं दिखाएँगे चाहे हम कुछ भी कहें.जैसा कि मैंने प्रवीण जी के ब्लॉग पर भी कहा कि हम हर एक बात दूसरों पर ही नहीं छोड सकते बच्चों को लेकर हमें खुद भी सतर्कता बरतनी पडती हैं.और मैं चाहूँगा कि इन बातों पर मासूम जी भी ध्यान दे ताकि फिर से दोहराव न हो.बच्चों को लेकर हमारी झिझक सही हैं लेकिन क्या इस बात का समाजशास्त्रीय विश्लेषण नहीं होना चाहिए कि हम बच्चों से केवल महिलाओं की ही तस्वीरों को छुपाने की कोशिश क्यों करते हैं?हम यहाँ से ही स्त्री शरीर को लेकर लडकों में कुंठा और लडकियों में हीनता बोध भरना शुरू कर देते हैं.वैसे भी बचपन की कंडीशनिंग व्यक्ति पर जीवन भर हावी रहती है.छोटे लडके के निजी अंगों से घरवाले हँसी ठिठोली करते हैं जबकि लडकियों को पूरी तरह ढककर रखा जाता हैं.यहाँ तक कि मैंने कई घरों में देखा हैं कि लडके को जहाँ खुले आँगन में भी नहला दिया जाता हैं पर लडकियों को नहीं.इस तरह के भेदभाव से जहाँ लडकों में पौरुष गर्व मजबूत होता हैं वहीं लडकियों को लगता हैं कि उसका शरीर कोई छुपाने की ही चीज हैं और उसे उघाडना गन्दी बात हैं.मुझे तो लगता हैं ये अंतर शुरु से ही खत्म होना चाहिए.आमतौर पर हमारे यहाँ शुरू से ही लडके लडकियों को आपस में घुलने मिलने पर भी कुछ ज्यादा ही रोक टोक लगाई जाती हैं यही कारण हैं कि लडकियाँ जहाँ बस खुद(पढें खुद के शरीर को) बचाने की जुगत करती रहती हैं वहीं बस लडके ये ही सोचते हैं कि काश उसका साथ मिल जाए.यानी दोनों के दिमाग में बस देह ही देह हैं.

राजन said...

कुछ बातें कहनी रह गई.अंशुमाला जी उस चित्र को लेकर मेरे अवचेतन में कुछ संशय नहीं हैं.जब मैंने इस विवाद को पढा तो लगा कि उस चित्र को देखना चाहिए फिर एक साईट पर वह दिख भी गया अब जरुरी तो नहीं हैं कि उसे लगाया ही जाए.कई बार हम वो काम नहीं भी करते हैं तब भी उसे अनैतिक नहीं मानते है.मैं कहता हूँ कि मैं लडकियों से दोस्ती करने और शराब पीने को अनैतिक नहीं मानता हूँ,आप जनाब कहेंगे कि डंके की चोट पर ये सब करके दिखाओ.
@आप भी मेरी बातका समर्थ ही कर रहे है...
अंशुमाला जी वहाँ मैं ये बताने का प्रयास किया था कि कई बार हमारे लिए कंटेंट ही महत्तवपूर्ण होता हैं और टीआरपी आदि की बात गौण हो जाती हैं.वहाँ हमें अपने विवेक से ही फैसला लेना होता हैं.वंदना जी की कविता का उदाहरण देकर भी यही समझाया था.वैसे बडे अंतर्यामी टाईप के हैं हमारे दर्शक,उन्होने कैसे जान लिया कि ओंकारा में विशाल भारद्वाज ने गालियाँ टीआरपी के लिए नहीं ही डाली या वह बिना गालियों के बन ही नही सकती थी.
अली साहब ने बडे अच्छे तरीके से समझाया हैं कि आदीवासी स्त्री का चित्र देखते ही हमारा ध्यान और भी बातों पर जाता हैं जैसे इनका जीवन हैं ही ऐसा और ये लोग इसी तरह रहते हैं फिर हम ये ध्यान नहीं देते कि कुछ लोगों के लिए यह भी एक कौतुहूल का विषय हैं जैसे इनके इलाकों में जाने वाले पर्यटक.और हम ये भी ध्यान नहीं देते कि ये भी आम लोगों की उत्सुकता को भुनाने के लिए टीआरपी के उद्देश्य के लिए डाली जा सकती हैं जबकि इस चित्र में हमें बस वो चित्र ही दिखाई दे रहा हैं उसकी पृष्ठभूमि पर गौर ही नहीं कर रहे वर्ना वह हमें अश्लील नहीं नजर आएगा.

राजन said...

@एस.एम.मासूम जी,
आज तो काफी दिनों बाद दिखाई दिए.
आपकी टिप्पणी का जवाब ऊपर दिया है.ब्लॉग पर आने और विचार व्यक्त करने के लिए शुक्रिया!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

Unknown said...

सार्थक पोस्ट