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Monday, May 9, 2011

हमारे जमाने में....

पहले ही बता दूँ की ना तो ये कोई गंभीर लेख है और ना ही किसी भी तरह से शिक्षाप्रद या जानकारीपरक है.ये केवल अपने अनुभव लिखने की तरह है ताकि आपको बाद में कोई निराशा ना हो और इसी बात को मेरे आगे के लेखों पर भी लागू समझिये.
     बुजुर्गों  की नई पीढी से यह शिकायत आम है की युवाओं  के पास उनके लिए समय नहीं है या वे उनकी बात नहीं मानते.एक हद्द तक उनकी ये बात सही है पर कई बार लगता है की वो ही  हमारी बात नहीं समझते.पर कुछ भी हो जब आप अपना थोडा समय उन्हें देते है तो कई बार बहुत सी रोचक बातें भी जानने को मिलती है.अक्सर उनकी ये बातें 'हमारे जमाने में...'से शुरू होती है.खासकर जब बातें गाँव से जुडी होती है.
                    वैसे तो हम शहरी लोगों के लिए गाँव की बहुत सी बातें आज भी नई ही होंगी लेकिन गाँव में भी पहले की तुलना में अब बहुत बदलाव आ चूका है.मेरे दादाजी जो की एक सेवानिवृत फौजी है कई बार इस बारे में बताते है.हम लोग तीस साल से ही शहर में रह रहे हैं यानी मेरे जनम से कुछ ही साल पहले.
                 सबसे पहले तो उनकी बातें शुरू होंगी आजकल के युवाओं के आलसीपन और कामचोरी को लेकर जिससे कई बार मैं सहमत नहीं हो पता हूँ लेकिन शारीरिक श्रम की जहां तक बात है वो लगता है की अब कम हुआ है कारण चाहे जो हो.उनके अनुसार पहले लड़के कुश्ती,पहलवानी में तो रूचि रखते ही थे बल्कि घर के कामों में भी पूरा हाथ बंटाते थे.एक सामान्य कद काठी का लड़का भी कई किलो मीटर दूर कुँए से ५-५ मटके पानी के ले आता था.तीन सर पर और दो कन्धों पर.बीमारियाँ बहुत कम होती थी और छोटी मोटी बीमारीओं की लोग परवाह नहीं करते थे.ये नहीं की आजकल के लड़के लड़कियों की तरह जरा मुहं में छाले हुए नहीं की हफ्ते भर के लिए मौन व्रत धारण कर बैठ गए.
                       दूसरी इनकी बातें होंगी आजकल की महंगाई को लेकर की कैसे पहले केवल 20  रुपये में महीने भर से ज्यादा का पूरे घर का राशन आ जाता था जबकि आज एक किलो चीनी तक नहीं आती.ठीक है की उस जमाने में 20  रुपये भी बहुत होते थे लेकिन ये सब सुनने में बड़ा अच्छा लगता है इसीलिए मैं  अपनी तरफ से खोद खोदकर भी ऐसी बातें पूछता हूँ.तीसरी बात शादियों को लेकर. एक बार दादाजी ने बताया की जब वे छोटे थे तो उनके पिताजी ने गाँव के एक गरीब की लड़की की शादी में 35  रुपये और कुछ कपडे दिए तो आस पास के गाँव में हंगामा मच गया था.पहले बारातें  आज की तरह एक दिन में  ही खा पीकर वापस  नहीं हो लेती थी बल्कि चार चार दिनों तक रुका करती  थी. जरा सोचिये लड़की वालों का क्या होता होगा.उस समय जब किसीके दहेज़ में साइकिल आ जाती तो लोग दूर दूर से उसे देखने के लिए आते.जिस लड़के की शादी में साइकिल आती वो वो उसे रोज धोता,साफ़ करता मगर महीनों तक इसे घर से बाहर नहीं निकालता.ये ही हाल तब था जब शुरू में रेडियो आया.जिस व्यक्ति के पास शुरू शुरू में रेडियो आ गया वो किसी से सीधे मुंह बात ही नहीं करता था.रेडियो को कंधे पर लटकाने के लिए वो एक लम्बी सी सुतली का प्रयोग करता और पूरे गाँव में शान से घूमता.अकड ऐसी की मानो रेडियो का आविष्कार ही इसीने किया हो.महिलाओं और दलितों की स्थिति में जो कुछ उन्होंने बताया मुझे नहीं लगता की आज भी इसमें कोई ख़ास अंतर आया है.इनके साथ भेदभाव अभी भी जारी है.
                        और ऐसा नहीं है की केवल बुजुर्गों के पास ही सुनाने को ये किस्से हो.हमारे माता पिता के पास भी 'अपने जमाने' के बारे में बताने को बहुत कुछ है.इनमे ज्यादातर बातें ७० के दशक की फिल्मों और उनके प्रति लोगों की दीवानगी की होती है.मेरे पापा बताते है की कैसे बच्चन की नई फिल्में देखने ले लिए वे दिनभर सिनेमाघरों की लइनों में खड़े रहते थे और कई कई बार तो एक ही फिल्म को दिन में दो या तीन बार भी देखते थे जैसे की दीवार और शराबी.उन्होंने बताया की साधारण शकल सूरत वाले राजेश खन्ना के प्रति जैसी दीवानगी लोगों खासकर के महिलाओं में हुआ करती थी वैसी फिर किसी हीरो को लेकर नहीं हुई(वास्तव में?).एक और बात जो मेरे लिए भी नई थी और कल ही मुझे पता चली की दिल्ली में एक बार लोकनायक जयप्रकाश नारायण की एक रैली को फ्लॉप कराने के लिए तत्कालीन सरकार ने राजकपूर की 'बोबी' को मुंबई से प्रिंट मंगवाकर आनन् फानन में दूरदर्शन पर प्रदर्शित कर दिया ताकि इसमें कम से कम लोग पहुंचे.बातें कई है पर अब ज़रा 'हमारे जमाने' की बातें भी तो कर ले.
                         हमारे जमाने में(बड़ा माझा आता है ये कहने में.)मुझे याद है कैसे एक रुपये की चार आइसक्रीम और चार पतंगें आया करती थी.त्योहारों का एक अलग ही माझा था.होली,दीवाली या संक्रांति पर जो हुल्लड़बाजी  देखने को मिलती थी अब कुछ महंगाई तो कुछ संयुक्त परिवारों के टूटने से सब फीका सा हो गया है.
                             टेलीविजन  से जुडी तो कई यादें है.शुरुआत में जब टी.वी. का नया नया दौर शुरू हुआ था तब मोहल्ले में हमारा दूसरा घर था जिसमें लकड़ी के शटर वाला टी.वी. था. शनिवार और रविवार को आने वाली ब्लैक &व्हाइट फिल्मों का लोग बेसब्री से इन्तजार करते थे.इनके बीच १५ मिनट का ब्रेक भी आता था जिसमे देश भक्ति गीत प्रसारित होते थे.तब दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था चिट्ठी-पत्री.इस प्रोग्राम को देखने के लिए भी मोहल्ले भर के बच्चे हमारे घर इकठ्ठा हो जाते थे.कई बार तो घर की साफ़ सफाई भी नहीं हो पाती थी.मम्मी बताती है की उस समय उन्हें एक ही कार्यक्रम सबसे अच्छा लगता था और वो था,डीडी का एतिहासिक ,जो कई बार आधे आधे घंटे तक भी चला करता था और जिसका कोई समय ही नहीं था,सोचिये कौनसा?
 जी हाँ.....
'रुकावट के लिए खेद है'
हा हा हा...कुछ याद आया?
इस कार्यक्रम के दौरान ही उन्हें कुछ चैन मिलता था.
                            एक और अंतर जो मुझे देखने को मिलता है वो है आजकल के बच्चे और उनकी परवरिश का तरीका.आजकल के बच्चे जहां विडियो गेम,मोबाइल और कंप्यूटर के शौक़ीन है,indoor गेम्स  खेलते है,हल्क और स्पाईडरमैन  के पोस्टर्स इनके कमरे में लगे होते है(इनके कमरा भी अलग होता है.)जबकि हमारे जमाने में ये सब इतना नहीं था(मतलब की फीलिंग ही दूसरी होती है.).पहले खुले मैदान बहुत थे.पक्की सड़कें नहीं थी.बच्चे बाहर गलियों में खेल सकते थे.आजकल पार्क भले ही बन गए है लेकिन वहाँ भी बौल  लाना मना है,साइकिल लाना मना है,घास पर चलना मना है जैसी हिदायतें लिखी रहती है.पहले बहुत कम बच्चे ऐसे दीखते थे जिनकी आँखों पर मोटे लेंस वाले चश्मे लगे हो.लगता है आजकल वाले ज्यादा ही पढ़ेसरे हो गए है.
                      आजकल की माएँ  भी बहुत बदल गई है(इसका मतलब ये नहीं की बच्चों के प्रति प्यार कम या ज्यादा हुआ हैं ).ये बात तो है की आजकल की सुपरमोम की तरह पहले की माएं बच्चों की छोटी मोटी बातों को उतनी गहराई से नहीं समझ पाती थी जो की सूचनाओं के ज्ञान की वजह से संभव हुआ है.ऐसा लगता हैं की आज के बच्चों की जिद पूरी करने को माँ बाप  खुद ही आगे रहते है.पर हमारे जमाने में ऐसा नहीं था.
                      बेचारे छोटे छोटे बच्चे थके  हारे पसीने से लथपथ स्कूल से लौटते और मम्मी जी गेट पर ही खड़ी मिलती,आते ही पहला सवाल-
होमवर्क मिला ??
हा हा हा....
बेचारे बच्चे की हालत खराब.लेकिन बात यही ख़तम नहीं होती, आगे भी-चल जल्दी से कपडे बदल,खाना  खा और पढने बैठ जा.आने दे तेरे पापा को बहुत बिगड़ गया है.
आजकल के बच्चों जरा कल्पना करके देखो.
                        और सोचकर देखिये आज से तीस चालीस साल बाद के बच्चों को हम आज की किन किन बातों के बारे में बताएँगे जिन पर वो आश्चर्य करेंगे.जब सब कुछ हमारे सामने ही इतनी तेजी से बदल रहा है.याद है मोटोरोला के वो ऐन्तीने वाले भारी भरकम हैण्ड सेट्स जब इन कमिंग  के भी ५-५,६-६ रुपये लगा करते थे.आज जिस तरह से पानी की किल्लत हो रही है कही ऐसा तो नहीं की जब हम इस जमाने के बारे में बच्चों को बताएं की कभी हम होली भी पानी से खेला करते थे और वो विश्वास ही न करे. 
                  
 
 
 
 
 
 
 
              
 

Monday, May 2, 2011

.....क्योंकि बहुत कुछ यहाँ 'फालतू' ही है.

एक नई फिल्म देखी, नाम है 'फालतू'.इस फिल्म में युवाओं को पढाई फालतू लगती है.फिल्म में ज्यादातर गाने फालतू में डाले गये है.एक्टिंग और निर्देशन दोनों फालतू टाईप के है.ऐसे निर्माता निर्देशकों को लगता है कि दर्शकों के पास बहुत सारा फालतू का समय और पैसा है.पर आजकल और भी बहुत कुछ फालतू का हो रहा है और माना जा रहा है.

आजकल सरकार को आए दिन अलग अलग माँगों के लिए होने वाले प्रदर्शन और बंद फालतू के लग रहे है वहीं जनता को सरकार की आपत्तियाँ फालतू लग रही है.नक्सलियों और माओवादियों को पूरा लोकतंत्र ही फालतू का लग रहा है.आतंकवादियों को इंसान फालतू नजर आते है वहीं आत्महत्या करने वालों को अपना जीवन ही फालतू नजर आता है.

महिलाओं को लगता है कि उन पर पुरूषों ने कई प्रतिबंध फालतू के लगा दिये है जिन पर वो सवाल उठा रही है वहीं पुरुषों को इनके सारे सवाल ही फालतू के नजर आ रहे है.

गभीर लिखने वालों को हल्का फुल्का लेखन फालतू लगता है वही हल्का फुल्का लिखने वालों को लगता है जब सरल भाषा में समझाया जा सकता है तो फालतू में गंभीर क्यों लिखे.युवाओं को तो हिंदी भाषा भी फालतू की लगने लगी है. तो बच्चों को ईमानदारी और सादगी की सीख ही फालतू लगती है.

कुछ लोगों को हेलमेट पहनने का नियम फालतू लगता है तो कहीं बिगडेल नशेडी अमीरजादों को कार ड्राइव करते समय फुटपाथ पर सोये हुए गरीब ही फालतू नजर आते है .पुलिस वालों को जनता की कंपलेन फालतू नजर आती है.कई लोग जिन्हें अपने शरीर की चर्बी फालतू नजर आती है जिम जाते है तो कईयों को जीभ पर कंट्रोल करना फालतू लगता है,खा खा के इनकी हालत ऐसी हो गई है कि आधी सडक फालतू में घेर के चलते है कल को हो सकता है पीठ पर एक तख्ती लगानी पडे-जगह मिलने पर ही साइड दी जाएगी.

मेरे दादाजी को अखबार में विज्ञापन फालतू लगते है तो दादीजी को राशिफल के कॉलम के अलावा पूरा अखबार ही फालतू लगता है.वृद्धाश्रमों की बढती संख्या और बागबान जैसी फिल्में देखकर तो लगता है औलादों को अपने बुजुर्ग माँ बाप भी फालतू लगने लगे है.तो कई लोगों को बेटियों को पढाना ही फालतू लगता है.

यहाँ ब्लॉगिंग में भी कई लोग धर्म के नाम पर झगड रहे है वही कईयों को लगता है कि ये झगडे ही फालतू के है इनसे दूर रहा जाए जबकि इन झगडने वालों को लगता है जो हमारे बीच बोल ही नहीं रहा वो ब्लॉगर ही फालतू का है.लीजिए हमने भी एक फालतू की चेप ही दी.इसे झेल जाइये.