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Saturday, July 28, 2012

न हर जगह हिंसा चल सकती है न अहिंसा न नारीवाद



गुवाहाटी छेडछाड प्रकरण के बाद महिलाओं के प्रति समाज का रवैया या उससे भी बढकर उनकी सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर से बीच बहस आ गया है.यूँ तो गुवाहाटी वाली घटना कोई अनोखी नहीं थी सिवाय इस बात के कि इसे भडकाने में वहाँ मौजूद पत्रकारों का भी हाथ था(वैसे इसका अंदाजा सभी को पहले से ही रहा होगा) जो कि इसे और गंभीर बना देती है लेकिन फिर भी इस घटना पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई वह महत्तवपूर्ण है.पहले इस विषय पर उतनी चर्चा नहीं होती थी लेकिन अब महिलाएँ पढने या नौकरी करने के लिए घर से बाहर निकल रही है जाहिर सी बात है सुरक्षा के सवाल और गहरे हो गए हैं.इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए लडकों की परवरिश में बुनियादी बदलाव तो जरूरी है ही लेकिन लडकियों को मानसिक व शारीरिक रुप से मजबूत बनाना भी उतना ही जरूरी है ताकि ऐसी कोई अनचाही स्थिति आने पर वह उसका मुकाबला डट कर कर सके.आत्मरक्षा के लिए कुछ हद तक हिंसा भी जायज़ है क्योंकि यह दूसरों को चोट पहुँचाने के लिए नहीं बल्कि खुद को बचाने के लिए है.लेकिन ब्लॉगजगत में कुछ पोस्टों पर हुए विवाद पर मुझे हैरानी हैं कि इसमें भी हिंसा बनाम अहिंसा वाला मुद्दा बीच में डाला जा रहा है.दरअसल आप जिस भी विचार वाद या सिद्धांत को मानते हो लेकिन आप चाहेंगे कि उसे हर जगह लागू किया जाए तो ये संभव नहीं है फिर चाहे वह हिंसा,अहिंसा नारीवाद या कोई भी 'वाद' हो.शीर्षक में जोडना संभव नहीं लेकिन बता दूँ कि मैं यह बात हर वाद के संदर्भ में कह रहा हूँ.क्योंकि लगभग हर वाद के समर्थक कई बार अतिवाद के शिकार हो जाते हैं.अभी कुछ दिन पहले एक वामपंथी लेखक का कोई लेख पढा जिसमें उन्होने 'कोलावेरी डी' गाने के हिट हो जाने को पूँजीवाद की विजय से जोड दिया ठीक इसी तरह अमिताभ बच्चन द्वारा गुजरात पर्यटन को बढावा दिए जाने के लिए किये जाने वाले विज्ञापनों के कारण उन्हें मोदी का समर्थक मान साम्प्रदायिक घोषित कर दिया.ये शायद सेकुलरवाद के लक्षण होंगे.कुछ कुछ ऐसा ही मुझे यहाँ हिंसा बनाम अहिंसा वाले मुद्दे को बीच में लाये जाने से लग रहा है और जोर देकर कहना चाहूँगा की मुझे ऐसा लग रहा है,हो सकता है की मैं ही बात को समझ नहीं पाया हूँ लेकिन जो लगता है उसे व्यक्त करना भी जरूरी समझता हूँ.
                     अब एक बार बाकी बातों को छोडिये,एक उदाहरण रखना चाहूँगा।अभी कुछ समय पहले देश ने अग्नी-5 मिसाइल का परीक्षण किया था उस समय टी.वी. पर रक्षा विशेषज्ञ भरत वर्मा ने बहुत अच्छी बात कही की हम कोई युद्ध का वातावरण नहीं बना रहे बल्कि एक 'शक्ति संतुलन' बना रहे हैं ताकि हमारा शत्रु यदि हमसे ज्यादा शक्तिशाली है तो भी उसे हम पर हमला करने से पहले ये जरूर लगेगा की सामने वाला मुझे भी अच्छा ख़ासा नुक्सान पहुंचा सकता है और इसी कारण वह हम पर जल्दी से हमला नहीं करेगा. जब हमारे पड़ोसी देश अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं तो हम ये सोचकर नहीं बैठ सकते की हम बुद्ध या गांधी के देश के हैं और अहिंसा ही हमारा धर्म है.हमें एक शक्ति संतुलन स्थापित करना होगा और जवाबी हमले के लिए भी तैयार रहना होगा ताकी शत्रु देश हमें नुक्सान न पहुंचा सके.भरत वर्मा की बात से तो लगता है की आज के जमाने में तो यदी हम कमजोर हैं तो ही हम हिंसा या हिंसक माहौल को निमंत्रण देते हैं जबकि अपने आपको मजबूत बनाते हैं तो हिंसा के अवसर अपने आप कम हो जाते हैं.(वैसे मेरा तो मानना है की प्रत्यक्ष हिंसा से भी ज्यादा खतरनाक तो एक हिंसक माहौल या कहें दहशत भरा माहौल होता है,महिलाओं ही नहीं हम सबके लिए जरूरी है की हम खुद को इतना मजबूत बनाए की थोड़ी बहुत दहशत हो तो बुरे लोगों में ही हो ) इसलिए यदि महिलाओं को भी मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाया जाए तो शरारती तत्वों पर कुछ लगाम लग सकती है.हालांकि पूरी तरह तो नहीं पर छेड़छाड़ जैसी घटनाएं उतनी सामान्य नहीं रहेगी जितनी अभी है या उनकी गंभीरता कम हो जायेगी.कुछ नहीं से अच्छा है कुछ तो हो.वैसे कहने को तो और भी बातें कही जा सकती है की इस तरह की घटनाओं के लिए खुद महिलाओं लड़कियों या उनके कपड़ों को दोष न दिया जाए लेकिन उतना कोई मतलब नहीं है ये सब कहने का ज्यादा जरूरी है की महिलायें खुद ही ऐसी बातों पर धयान देना बंद कर दे.
                   खैर ये तो बात हुई अहिंसा की कि हम हर जगह अहिंसा की नीति से ही समाधान नहीं पा सकते.लेकिन क्या हिंसा भी कोई समाधान है ?कई बार दो देश आपस में लड़ते हैं खूब खून खराबा होता है लकिन अंत में टेबल पर आकर समझौता करना पड़ता है इसी तरह परिवार के दो सदस्यों में ही कई बार सिर  फुट्टवल की नौबत आ जाती है उस समय इनके पास भी अपनी अपनी हिंसा को जायज ठहराने के कारण रहे होंगे लेकिन बाद में दोनों को ही पछताते देखा जाता है.देखा जाये तो उद्देश्य तो सबका एक अहिंसक समाज का निर्माण ही हैं और महिलाएं तो खासतौर पर कभी नहीं चाहेंगी की समाज में हिंसा का वातावरण बने.लेकिन ये बात बुरे लोगों को समझ नहीं आती,जो शोषण करता है वह तो इसी बात पर सैडिस्टिक आनंद अनुभव करता है की हमसे कोई दब रहा है,डर रहा है.बल्कि हमारा विरोध न करना उनके हौसले बढाता ही है.यदी छेड़छाड़ करने वालों की ही बात करूँ तो महिलाओं के प्रति इस अपराध को ख़त्म करने के लिए ये जरूरी है की लड़कों की परवरिश इस तरह की जाये की वे महिलाओं को वास्तु न समझकर इंसान समझे लेकिन  लिए समाज कितना तैयार  है? और जब तक ऐसा हो उससे पहले उपाय क्या है? और वैसे भी कुछ बुरे लोग तो समाज में फिर भी रहेंगे ही.जाहिर है हमें और खासकर महिलाओं को अपने बचाव के लिए खुद को तैयार करना होगा भले ही कोई बुरा समय आने पर हिंसा का ही सहारा क्यों न लेना पड़े.
                      आज मैं मानता हूँ की महिलाओं पर हाथ उठाना गलत बात है लेकिन यदि किसी महिला ने अचानक कभी मुझ पर चाकू से हमला कर दिया तब थोड़े ही मैं अपने किसी सिद्धांत से चिपका रहूंगा बल्कि उस समय तो मैं खुद को बचाने की ही कोशिश करूंगा और जरूरी हुआ तो उसे धक्का भी देना पड़े अब इस कारण उसे चोट लगती है तो लगे लेकिन इसे हिंसा को बढ़ावा देना या महिलाओं का अपमान करना कैसे माना जा सकता है.वैसे मैंने सुना है की जहां लड़कियों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता है वहाँ सबसे पहले ये ही सिखाया जाता है की ऐसी कोई स्तिथि आने पर लड़ने की बजाय जोर से चिल्लाना या भागना ही ज्यादा सही है.
                         अब नारीवाद के बारे में ये ही कहूँगा की जब तक पुरुष का विरोध केवल और केवल इसलिए न किया जाए की पुरुष पुरुष है तब तक भी मुझे तो इसमें कुछ गलत नहीं लगता हाँ कई बार किसी के तरीके से जरूर असहमति हो सकती है पहले मैं इस बारे में कोई आपत्ति नहीं करता था पर आजकल कह देता हूँ.कई बार ऐसा भी होता है या कहूँ की मुझे ऐसा लगता है की एक गलत विरोध या गलत तरीके को भी सही बताकर नारीवाद से जोड़ दिया जाता है.मैंने कुछ समय पहले ऐसे लेख और टिप्पणियाँ भी पढी थी और कई लोगों को ऐसी बातें कहते सुना भी जिनमें उन पाकिस्तानी महिलाओं की बहादुरी के भी गीत गाये जा रहे थे जिन्होंने अपने बेवफा प्रेमियों पर तेज़ाब डाल दिया था.पाकिस्तान में इस तरह की कई घटनाएं एक के बाद एक सामने आई थी.लेकिन इन लड़कियों को भी चिंगारी,ज्वालामुखी और न जाने कौन कौनसी उपमाएं दी गई और साथ में पुरुषों को डरकर रहने की नसीहतें भी. और केवल महिलायें ही नहीं बल्कि कई पुरुष भी जोश में लग रहे थे.पर ये सब मुझे बिलकुल गलत लगा.और ऐसा करने से किसीको लग रहा है की पुरुष सुधर जाएगा तो ऐसा कुछ  नहीं है.ये एक वर्ग के खिलाफ हिंसा को ही नहीं बल्कि बदला लेने की भावना को भी जस्टीफाई करना है.आत्मरक्षा के लिए हिंसा भी गलत नहीं है लेकिन बदला लेने को सही नहीं कहा जा सकता खासकर तब जब दूसरा विकल्प मौजूद हो.कल को लड़के भी लड़कियों पर तेज़ाब फेंकने वाली घटनाओं को सही बताने लगें तो किस तर्क से उन्हें गलत साबित किया जाएगा? ऐसा करने से तो जो स्त्री पुरुष अभी सही है वो भी एक दुसरे से बदला लेने की ही सोचने लगेंगे और इसके लिए उनमें कोई अपराधबोध भी नहीं होगा.इसलिए ऐसे उदाहरणों को नारीवाद या नारी सशक्तिकरण से जोड़ना सही नहीं मानता बाकी ख़याल अपना अपना.
                        और अब मुद्दे से थोडा हटकर एक बात की सभी पुरुष भी महिलाओं की विरोध वाली बात से चिढ़ते ही हो ये जरूरी नहीं 'चक दे इंडिया' सभी ने देखी होगी फिल्म का टर्निंग पॉइंट है वह सीन जब लडकियां उन लड़कों की पिटाई कर देती है जिन्होंने उनके साथ छेड़छाड़ की थी या उन्हें अपमानित किया था.आज भी केवल लडकियां ही नहीं लड़कों को भी ये सीन जोश से भर देता है.और मैं खुद इस फिल्म को देखने तभी गया था जब अपने साथ के लड़कों से इस फिल्म और खासकर इस दृश्य की प्रशंसा सुनी.वहाँ माहौल देखकर लगा नहीं कि पुरुष इसे पुरुष के विरोध में ले रहे हैं क्या इस बात का भी कोई सामजिक विश्लेषण संभव है?लेकिन हाँ ज्यादातर की मानसिकता अभी भी वही है की दोष तो लडकी के करेक्टर का या कपड़ों का ही होगा.अभी निकट भविष्य में तो लगता नहीं की ये मानसिकता जाने वाली है.
                         और चलते चलते शीर्षक के बारे में भी बता दूं की जब मैं ये शीर्षक सोच रहा था तब मुझे लग रहा था की कहीं इससे दूसरों को ये न लगे की मैं दूसरों को कुछ सिखाने की कोशिश कर रहा हूँ या खुद को बहुत प्रगतिशील समझ रहा हूँ हो सकता है आपको ऐसा कुछ लगे भी.लेकिन ऐसा है नहीं. पोस्ट का शीर्षक ये इसलिए रखा ताकि पोस्ट की बात इसमें सिमट जाए.बाकी स्थिर मानसिकता होने या बिलकुल सही होने का दावा मेरा कभी नहीं रहा.इस मंच को केवल अपने विचार व्यक्त करने और दूसरों को समझने का जरिया भर मानता हूँ।इस विषय पर पोस्ट इसलिए लिखी क्योंकि जब जब कुछ दिनों से मैं ब्लॉगजगत से दूर था उस दौरान कई ऐसी पोस्ट्स आई जो अब समय मिलने पर पढी लेकिन सब जगह टिप्पणियां देना संभव न था सोचा पोस्ट ही लिख दी जाए.