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Sunday, June 26, 2011

कनाडा से भारत तक......'बेशर्मी मोर्चा'

कनाडा के एक पुलिस अधिकारी द्वारा विश्वविद्यालयों की छात्राओं को दी गई एक सलाह की 'यदि लडकियां बलात्कार से बचना चाहती है तो उन्हें slut'(वैश्या) जैसे कपड़ों से परहेज करना होगा' के बाद दुनिया भर में इस पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हई है.कनाडा,अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया सहित अनेक देशों में महिलाओं ने 'slutwalk ' का आयोजन किया है जिसमे पुरुषों ने भी अच्छी भागीदारी की है.इन महिलाओं के अनुसार इन प्रदर्शनों के जरिये वे यह बताना चाहती है की बलात्कार जैसे अपराध कुछ पुरुषों की महिला विरोधी लम्पट मानसिकता का नतीजा है और उन्हें अपने
 मन मुताबिक कपडे पहनने का हक़ है.
           अब भारत में भी इस तरह कि ही  रैली के लिए तैयारियां चल रही है.डी.यु. में द्वितीय वर्ष की पत्रकारिता की छात्रा उमंग सभरवाल ने फेसबुक  के जरिये दिल्ली की छात्राओं से इस तरह की रैली में शामिल होने का आह्वान  किया है.इस  रैली का नाम उन्होंने '
बेशर्मी  
मोर्चा' रखा है.वही मुंबई में एक गैर सरकारी संस्था ने भी जुलाई के अंतिम सप्ताह में एक ऐसे ही विरोध प्रदर्शन का आयोजन करने का फैसला किया है.
     महिलाओं के लिए  ये कोई नई बात नहीं है की उनके कपड़ों से ही उनके चरित्र को आँका  जाता है.पढ़े लिखे पुरुषों में से भी कईयों की ये ही सोच है की महिलाओं के 'भड़कीले' वस्त्र पुरुषों की यौन उत्तेजना के लिए उत्प्रेरक का काम करते है जिससे की पुरुष खुद पर काबू नहीं रख पाते.वहीं कुछ महिलाओं का भी मानना है की जो महिलायें छोटे कपडे पहनती है उन्हें खुद से सती सावित्री  जैसे व्यवहार किये जाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.
            परन्तु मनोविज्ञान की माने तो बलात्कार जैसे अपराधों के पीछे दैहिक आकर्षण उतना बड़ा कारक नहीं है जितनी की पुरुषों की सदियों पुरानी वही सोच जो महिलाओं को हर हाल में दबाएँ रखना चाहती है.साथ ह़ी कई बार के अध्ययनओं में ये बात सामने आ चुकी है की बलात्कार की शिकार ज्यादातर वे ह़ी महिलायें होती है जो साड़ी या सलवार  सूट जैसे कपड़ों में होती है.कम कपड़ों वाला तर्क वैसे भी बहुत कमजोर है क्योंकि एक ८० साल की बुजुर्ग से लेकर ६ माह की बची तक कोई भी महिला आज के माहौल में सुरक्षित नहीं है.लेकिन फिर भी चाहे विकसित समझे जाने वाले पश्चमी देश हो या पिछड़े माने जाने वाले इस्लामिक राष्ट्र हो या फिर हों विकासशील भारत जैसे देश, महिलाओं को हर जगह पुरुषों की शिकारी के बजे शिकार को ह़ी दोषी ठहराने वाली मानसिकता का सामना करना ह़ी पड़ता है.
              इन सब बातों का विरोध महिलायें शुरू से करती भी रही है.हमारे देश में भी बहुत कुछ  इस बारे में लिखा जा रहा है.कुछ साल पहले दक्षिण भारत के एक शहर (नाम याद नहीं आ रहा) में कुछ इसी तरह के विरोध प्रदर्शन का आयोजन एक गैर सरकारी संस्था ने ह़ी किया था.जिसमे शहर की सबसे व्यस्त सड़कों पर लडकियां अलग अलग जगहों पर खडी हो जाती और वहाँ से गुजरने वाले लड़कों  को उसी तरह से घूरती जैसे लड़के लड़कियों को घूरते है.इसका मकसद लड़कों द्वारा लड़कियों को घूरे जाने की गंदी आदत का विरोध करना था क्योंकि इससे वे असहज महसूस करती है.इसके अलावा तहलका की निशा सुसन द्वारा श्रीराम सेना नामक एक हिंदूवादी संगठन के विरोध में चलाया गया एक कैम्पेन  भी बहत चर्चित रहा था.मंगलौर के एक पब  में लड़कियों की पिटाई करने वाले इस संगठन ने निशा के अभियान के बाद अपने आगे के ऐसे ही 'अभियान' वापस ले लिए थे.निशा का कैम्पेन  जिस तरह  विवादों में आ गया था वैसे ह़ी उमंग के द्वारा इस रैली का नाम बेशर्मी
मोर्चा रखे जाने पर कुछ लोगों ने अभी से आपत्ति करनी शुरू कर दी है.परन्तु उमंग का कहना है की ये नाम उन्होंने एक ग्रुप मीटिंग के बाद एकमत से चुना है ताकि लोग समझ जाए की हमारा मकसद क्या है और लड़कियों के छोटे कपड़ों का मतलब उनकी 'हाँ' न समझा जाये.
                मुझे लगता है की जब किसी भी गलत बात का विरोध करने के पारंपरिक तरीके काम न करे तो कुछ हटकर कदम उठाना  गलत नहीं है.बस ये ख़याल रहे की माहौल किस बुराई के खिलाफ बनाया जा रहा है.अभी भी जहाँ भी इस तरह के प्रदर्शन हो रहे है वहाँ इस मसले पर गंभीर  बहस  छिड गई है.लेकिन हमारे यहाँ कुछ लोग अभी से इसे प्रचार के भूखे लोगों का हथकंडा,संस्कृति के खिलाफ आदि मानने लगे है.पर चाहे जो हो कोशिश ये ह़ी होनी चाहिए की बहस इन अपराधों और इनके लिए महिलाओं को ह़ी जिम्मेदार  ठहराने वाली प्रवृति  पर ह़ी केन्द्रित होनी चाहिए.
                        कुछ महिलाओं को लग सकता है की इस तरह के विरोध प्रदर्शनों से पुरुषों की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है.ये बात सही भी है लेकिन इस बहाने जो बहस चलती है तो लोग थोडा बहुत सोचने को मजबूर होते है.और मान लेते है की पुरुषों पर कोई फर्क नहीं पड़ने  वाला तो भी कम से कम वो महिलाएं तो इस बारे में गंभीर होंगी जिन्होंने पुरुषों की इन आदतों को सामान्य मान लिया है.
                     जहाँ तक बात है विरोध के तरीके की तो ये एक अच्छे उद्देश्य के लिए ह़ी किया जा रहा है.और पुरुषों की आपत्ति की  असली वजह विरोध  का तरीका नहीं है दरअसल उन्हें इन सब सवालों से ह़ी परेशानी है जो महिलायें उठा रही है और कम से कम इन बातों का विरोध महिलायें किसी भी तरीके से कर के देख ले,कुछ पुरुषों की गालियाँ तो उन्हें पड़ेंगी ह़ी,फिर चाहे वो कोई छात्रा हो या कोई साहित्यकार.यहाँ नेट पर भी इस तरह के उदाहरण भरे पड़े है.वही कुछ महिलाओं का कहना है की विरोध का ये तरीका अपनाने पर तो बलात्कार जैसा अपराध, जिस पर गंभीर बहस होनी चाहिए वो बहुत हल्केपन में लिया जायेगा.लेकिन ऐसा हैं नहीं क्योंकि  हलके में तो इसे अभी समाज ले रहा है.यदी हमारा समाज ये मानता है की बलात्कार और छेडखानी का कारण महिलाओं के छोटे कपडे ह़ी है तो इसका मतलब पहले से ह़ी महिलाओं के प्रति इन अपराधों को हलके में लिया जा रहा है.और इसी का तो विरोध किया जा रहा है. ऐसे विरोध प्रदर्शन यदि एक बहस का माहौल तैयार करते है तो इसमें बुराई क्या है.

7 comments:

anshumala said...

राजन जी

अबसे पहले धन्यवाद यह जानकारी के लिए की ऐसा कुछ भारत में भी होने जा रहा है |
बिलकुल सही और संतुलित लेख लिखा है पर अक्सर होता यही है की मुद्दे के खिलाफत करने वाले लोग असल चीज को भूल कर दूसरी चीजो पर बहस करने लगते है यहाँ भी यही होने वाला है |

रचना said...

tumnae sahii tarikae sae mudda liyaa haen aur post badhiya bangaye haen

samay taeji sae badal rhaa haen par kuchh log jahaan they wahii rukae haen

sajjan singh said...

आपका ब्लॉग अच्छा लगा। सही कहा आपने दोष कपड़ों का नहीं मानसिकता का है आज भी ऐसे आदिवासी समाज हैं जहां स्त्रियां नाममात्र के कपड़े पहननती हैं लेकिन उनके साथ इस तरह के अपराध नहीं होते। सोच बदलने की जरूरत हैं, दोषी बलात्कारी ही होता है ना कि पीड़ित।


मेरा ब्लॉग- संशयवादी विचारक

चंदन कुमार मिश्र said...

"परन्तु मनोविज्ञान की माने तो"

किस मनोविज्ञान ने यह सब कहा भाई? और मनोविज्ञान के किस ज्ञाता ने यह सुझाया है?

"कपड़ों वाला तर्क" पर तो आप मेरा जवाब देख चुके हैं। और वह लफ़्फ़ाजी नहीं है, बन्धुअ! सत्य तो वही है, हर जगह देखें।

बहुत कुछ कहने का तो मन है लेकिन छोड़िए…

राजन said...

यदि मैं ये कहूँ कि महिलाओं की याददाश्त अधिक तेज होना या पुरूषों का नक्शे पढने मे अधिक कुशल होना मनोवैज्ञानिक सत्य है तो क्या ये उल्लेख करना जरुरी ही है कि किसने कहा कब कहा?क्योंकि कुछ मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तथ्य होते ही इतने सामान्य और सर्वविदित है कि उनके लिए संदर्भ या स्त्रोत बताना जरूरी नहीं होता.बिना किसी ज्ञाता का नाम लिये मैं कहता हूँ कि आयुर्विज्ञान के अनुसार महिलाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता पुरूषों से ज्यादा होती है तो क्या ये तथ्य ही सही नहीं है. वैसे तो नेट पर इस संबंध मे जानकारी मिल जाएगी पर वो सब इतना जरूरी नहीं हैं क्योंकि ये मसले ऐसे है जिन्हें कोई भी सामान्य बुद्धि का इंसान समझ सकता हैं यदि वो चाहे और थोडी इमानदारी भी रखें.ठीक है आप मुझसे तो पूछ रहे है परंतु हे भारत के भावी वजीरे आज़म क्या मैं आपसे ये पूछ सकता हूँ कि खुद आपने प्रवीण जी के ब्लॉग पर ये पंक्तियाँ किस आधार पर लिखी है- इससे
कोई इनकार
नहीं कि मानसिकता अध
िक दोषी है लेकिन
क्या बाहरी कारकों का
कोई असर नहीं ?
ये ही बात मैँने भी ऊपर कही है कि मानसिकता ज्यादा दोषी है पर दैहिक आकर्षण उतना नहीं क्योंकि यदि ऐसा होता तो हर एक पुरूष बलात्कार कर रहा होता.यदि कोई पुरुष अपने आवेगों पर नियंत्रण नहीं रख सका तो गलती उसकी ही है.हाँ कुछ और कारक जिम्मेदार हो सकते है जैसे बलात्कारी की परवरिश और उसका परिवेश.लेकिन ये तो किसी भी अपराध के मामले में हो सकता है और इससे अपराधी का दोष कम कैसे हो जाता है?रही बात कपडों की तो उन महिलाओं के साथ भी बलात्कार होते हैं जो पूरे कपडों में होती हैँ,गाँवों में भी ये मामले खूब होते है उनके पीछे क्या कारण है या आपकी समझ से वहाँ कि महिलाएँ भी वेस्टर्न कल्चर मे ढल अंगप्रदर्शन कर रही है.वैसे इस संबंध में सज्जन जी कि टिप्पणी भी गौर करने लायक है.बुर्जुग महिलाओं और बच्चियों वाले तर्क की तो खैर आप ऑलरेडी धज्जियाँ उडा चुके हैं महिलाओं से ये पूछकर कि कुल बलात्कार के मामलों में से ऐसे मामलों कि संख्या कितनी है जो इसे इतना महत्तव दिया जा रहा हैं.गनीमत है आपने ये नहीं पूछा कि पुरुषों की कुल जनसंखया में से बलात्कारियों की संख्या कितनी है या कुल महिलाओं में से पीडित महिलाएँ कितनी हैं जो इस विषय पर इतनी हाय तौबा मचा रखी है.तब तो

राजन said...

....जारी
तब तो बलात्कार का विषय ही गौण हो जाएगा.वैसे बलात्कार पीडित बुजुर्ग महिलाओं और पीडित बच्चियों की संख्या इतनी कम भी नही हैं कि इन्हें अपवाद माना जाए.बहुत से ऐसे मामले तो सामने ही नहीं आ पाते.खासकर बच्चियों के साथ स्कूल में ऐसी घटनाएँ खूब होती है(अब मासूम बनते हुए ये मत कहिएगा कि कहाँ लिखा है ऐसा).महिलाओं से छेडछाड बलात्कार द्वारा पुरुष अपने पौरुष गर्व को मजबूत करना चाहता है.वह महिला का आत्मविश्वास तोडकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है.युद्ध या दंगों में महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाओं के पीछे पुरुष की यही सोच होती है वर्ना उस समय कौन महिलाओं के कपडे देखने बैठा है.प्रवीण जी के ब्लॉग पर स्लटवॉक के बारे में और भी बहुत सी बातें आपने कही है उन पर भी कहने को बहुत कुछ हैं पर छोडिये अब

Rahul Singh said...

इस दौरान लगने लगा है कि यह विषय चर्चा-सुख के कारण अधिक चर्चा में है.