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Tuesday, January 8, 2013

अपने अपने एजेंडे

वैसे तो महिलाओं को लेकर समाज,कानून और व्यवस्था का क्या रवैया है हम सबको पता है ,लेकिन दिल्ली प्रकरण न हुआ होता तो हमें पता ही नहीं चलता की दरिन्दगी की हद क्या होती है,की पुलिस किस कदर असंवेदनशील हो सकती है,यहाँ तक की खुद एक महिला पुलिसकर्मी भी कैसे इतनी वीभत्स घटना को इतने हलके में ले सकती है जबकि हम कहते हैं की पुलिस में महिलाओं की संख्या बढाई जानी चाहिए ताकि पुलिस का चेहरा कुछ उदार हो सके।हमें ये भी नहीं पता चलता की ऐसी मुसीबत में घिरी किसी लडकी का संघर्ष करना भी बहादुरी नहीं बल्कि बेवकूफी होती है।जिसका मजाक उड़ाया जाना चाहिए।हमें यह भी नहीं पता चलता की कितना आसान है ऐसे दरिंदों से छुटकारा पाना बस लडकी उन्हें भाई कहे और उनके पैरों में पड़ जाएँ।जब तरीका इतना सरल है तो इतना हंगामा क्यों मचाया जा रहा है।भाई ये बात एक अंतर्राष्ट्रीय भगवान् ने कही हैं जो मीठे मीठे  प्रवचन देता रहता है,संस्कृत के श्लोक बकता रहता है और खुद को भगवान् कहता और कहलवाता है जो खुद सारे ऐश्वर्य भोगता है और दूसरों को भोग विलास त्यागने को कहता है ऐसे संत आसाराम बापू की बात में क्या कुछ दम नहीं होगा?इससे पहले यही बात एक वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न विदुषी भी कह चुकी है।जिसने की उस युवती के संघर्ष का मजाक तक उड़ा दिया।हद तो ये है की वो अभी भी अपनी बात पर कायम है।
            खैर ये सब तो बड़ी ही साधारण सी चीजें हैं  (मतलब आजकल साधारण लगने लगी हैं ) यदी दामिनी प्रकरण (किसी चैनेल ने उस लडकी को दामिनी नाम दिया तो किसीने निर्भया,लेकिन एक चेनेल ने तो वेदना नाम ही दे दिया।) न हुआ होता तो हमें ये ही नहीं पता चलता की कैसे कुछ जातियों के साथ भेदभाव ही बलात्कार जैसे अपराध का कारण है।जैसा की शरद यादव साहब हमें बताते हैंकी हमें गहराई से इस बात को सोचना चाहिए।मेरी जानकारी कम हैं लेकिन शायद स्वर्ण महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं होते या बलात्कारी शायद ये करने से पहले जाती पूछते हैं।कुछ और जानकारी में इजाफा हुआ जब ये सुना की यदी बलात्कार को रोकना है तो इसका उपाय सिर्फ एक धर्म में ही हैं।ये अलग बात है की ऐसा कहने वाले खुद अपने कुछ भटके भाइयों को रोक नहीं पाए हैं।यही नहीं एक सेकुलरिज्म के झंडाबरदार तो यहाँ तक कह गए कि अमेरिका जिस तरह इस्लामिक मुल्कों पर अत्याचार कर रहा है उससे बलात्कार जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं।थोडा घुमा फिरकर ही सही भारत के सन्दर्भ में ये जनाब थोडा घुमा फिराकर कहते हैं की यहाँ ऐसे अपराधों का कारण बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता है।और ऐसे सांप्रदायिक तत्व ही बलात्कार करने वालों को प्रोत्साहित करते हैं।धन्य है ऐसी एकतरफ़ा सोच।
                  शीला दिक्षित से राज ठाकरे तक दरअसल सबके अपने अपने सेट एजेंडे हैं।इतनी दर्दनाक घटना को अपने पक्ष में भुनाने का।लोगों खासकर महिलाओं का ध्यान वास्तविक समस्या से हटाने का।और हम सब भी एक काम तो यही कर रहे हैं यानी असली मर्ज का इलाज न करना,उसकी तरफ से मुंह मोड़ना।पूरे प्रकरण के बाद आप किसी लड़के से पूछिए वो बस नेताओं पुलिस या सरकार को कोसता मिलेगा क्योंकि माहौल ही ऐसा बन गया है।समाज में कुछ लोग अच्चा करते हैं उसे हम अपनी उपलब्धि मानते हैं फिर बुरा करने पर अपनी गलती क्यों नहीं मानते।उपाय की बात तो बाद में आयेगी।अभी कुछ दिनों पहले मैं एक सीरियल देख रहा था जिसमें नायिका कहती है की छेड़छाड़ और बलात्कार आदी रोकने हैं तो पुरुषों को ही घर से बाहर नहीं निकलने देना चहिये।बात सही लग सकती है लेकिन एक कडवी सच्चाई ये है की ज्यादातर यौन शोषण और बलात्कार जैसे अपराध घरों के भीतर ही होते हैं और नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा किये जाते हैं कई बार इस तरह के सर्वे हो चुके हैं ।हम कब तक सच्चाई से मुंह मोडते रहेंगे? यहाँ ब्लॉगजगत में भी येही देखने को मिल रहा है।इतने दिन से पुरुष ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं की देखो जी महिलाएं कैसे कैसे बयान दे रही हैं फिर पुरुषों को ही क्यों दोष दिया जाए।महिलाएं ठीक उल्टा कर रही हैं।अभी एक लेख पढ़ा जिसमें लेखिका बड़ी ही चालाकी से ये कहती दिखती है की जिस महिला वैज्ञानिक ने विवादास्पद बयान दिया उस समय वहाँ ज्यादातर पुरुष थे जिन्होंने विरोध नहीं किया इस हिसाब से पुरुष ही ज्यादा दोषी है।क्या बेवकूफी है ये?और ये क्या कोई दोषारोपण की प्रतियोगिता चल रही है ?पुरुषों के बारे में तो जगजाहिर है की वो किस तरह टालू रवैया अपनाते हैं लेकिन मैं खुद हैरान रह गया जब देखा की खुद महिलाएं इस तरह की बातें कर रही है की यदी कोई कडा कानून बन गया तो निर्दोष पुरुष भी फंस जायेंगे और बेटों वालों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।अब ये सब  हो क्या रहा है?
                जब समाज का ये हाल है तो कोई उम्मीद सचमुच नजर नहीं आती।ऐसे लोग क्या अपने लड़कों को सुधारेंगे और क्या लड़कियों को साहसी बनायेंगे।इस घटना के बाद शाहरुख़ खान कह रहे थे की मैं बड़ा दुखी हूँ बल्कि पुरुष होने पर ही शर्मिंदा हूँ।मैं ये नहीं कहता की शाहरुख़ को कोई दुःख नहीं होगा लेकिन कई बार हम अनजाने में ही कुछ ऐसी बात कह जाते है जो दूसरों पर बहुत गलत असर डालती हैं।आपको शायद याद होगा इन्हीं शाहरुख़ का बयान कई साल पहले आया था जिसमें उन्होंने कहा था की जितनी भी बोलीवुड की नायिकाएं हैं जिनके बेटी है उन्हें अब सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि मेरा बेटा बड़ा होकर उनकी बेटियों को परेशान किया करेगा।अब ये बात उनहोंने मजाक में कही जिसका कोई गलत उद्देश्य भले ही नहीं होगा लेकिन इस तरह की बातें समाज में भी की जाती हैं और इनका असर लड़कों पर बहुत नकारात्मक होता है,उन्हें लगने लगता है की लड़कियों के साथ थोड़ी बहुत छेड़खानी आदि में कोई गलत बात नहीं है।क्या किसी लडकी की मां इतनी आसानी से ये बात लड़कों के माता पिता से कह सकती है ?जब तक हम समस्या की गमभीरता को नहीं समझेंगे तब तक कुछ नहीं होने वाला है।फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ,पुलिस गश्त,महिला पुलिसकर्मियों की संख्या में इजाफा,जगह जगह सादा वर्दी में पुलिस की तैनाती,काले शीशे लगी गाड़ियों की रोकथाम आदी उपाय जरूरी हैं लेकिन खुद समाज को अपने स्तर पर बदलाव लाना ज्यादा जरूरी हैं।लड़के अपने पारिवारिक माहौल से ही सब सीखते हैं।सीधे सीधे कोई अपने बच्चों को नहीं समझाता।लेकिन इन चीजों पर बात होनी जरूरी हैं।माता पिता और खासकर पिता इस तरह के मामलों और ऐसी ख़बरों पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं ये बच्चों के लिए बहुत मायने रखता है।और यही आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है।लेकिन हमारे समाज में  ऐसा नहीं होता पहली बात तो बच्चों से इन पर बात ही नहीं की जाती ये सोचकर की बच्चों को ये बातें पता ही नहीं पड़नी चाहिए।जबकि बचपन से ही लड़कों के मन में ये बात बिठाने की जरूरत है की ये छेड़छाड़ आदी भी बलात्कार की ही तरह गलत है।यहाँ तक की कोई भी ऐसी बात जो महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध हो उसका वहीँ तीव्र विरोध करना चाहिए।दुसरी तरफ लड़कियों को भी डराने की बजाये सावधान रहना सिखाना चाहिए।उन्हें आत्मरक्षा की ट्रेनिंग इसके बाद आती हैं।
                 हालांकि इस पर बहुत कुछ कहा गया है और कहा जा रहा है की क्या होना चाहिए और क्या नहीं।लेकिन हम कई बार ये सोचकर निराश हो जाते हैं की ये सब बदलाव तो धीरे धीरे होंगे और हम ज्यादा और सीधे तौर पर कुछ नहीं कर सकते।लेकिन एक छोटा सा काम हम अभी और इसी वक्त से कर सकते हैं,वो ये की माँ बहिन बेटी वाली जितनी गालियाँ समाज में प्रचलित हैं उनका और उन्हें बोलने वालों का बहिष्कार करना।खुद तो इसका प्रयोग न ही करें लेकिन यदि कोई आपके सामने ऐसा करता है तो कम से कम एक बार उसका विरोध जरूर करें चाहें वो आपका कितना ही अजीज क्यों न हो।और फिर भी यदि कोई आदत नहीं सुधरता तो अपने स्तर पर उसका बहिष्कार करें इससे होगा ये की वह व्यक्ति आपके सामने भले ही गलती न माने लेकिन किसी अनजान के सामने उसकी प्रतिक्रिया को लेकर आशंकित जरूर होगा।मैं ये बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं खुद ऐसा विरोध कर चूका हूँ।यहाँ तक की एक बार तो अपने से तीन गुना उमर के एक परिचित बुजुर्ग का भी।और मैंने देखा है की ये प्रयास खाली नहीं जाते।ज़रा सोचें की एक दुराचारी या एक बलात्कारी को खुराक कहाँ से मिलती हैं।और ज़रा इन गालियों का मतलब क्या होता है इस पर भी ध्यान दीजिये।क्या ये भी एक किस्म का बलात्कार ही नहीं है?इनसे कहीं न कहीं ये मानसिकता बनती है की महिला बस एक वसतु है।जिस पर हम अपना गुस्सा निकाल सकते हैं।लड़ाई चाहें किसी से भी हो लेकिन उसकी माँ बहन या बेटी के शरीर को निशाना बनाना मतलब विजेता होना।जाहिर है यह सोच एक बलात्कारी में से अपराधबोध को तो ख़त्म ही कर देगी।और यही काम तब भी होता है जब हम बलात्कार और छेड़छाड़ के लिए लड़कियों को ही जिम्मेदार ठहराते हैं।जब उनके कपड़ों के कारण उन्हें बदचलन कहते हैं।ये बातें हम जितनी जल्दी सीख लें हमारे लिए उतना ही अच्छा हैं।वरना ध्यान रहे की यदि आप यही रवैया रखते हैं जैसे बात बात में गलियों का प्रयोग या बलात्कार के लिए औरतों को ही जिम्मेदार ठहराने वाली दलीलें तो आप भी एक तरह से बलात्कारियों को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं।अन्यथा फिर आपको दूसरों को दोष देने का कोई हक़ कम से कम नैतिक तौर पर तो नहीं रह जाता तब भी नहीं जबकि शिकार खुद आपके घर की ही कोई महिला हो।

7 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

लंका में सब बावन गज के हैं..

anshumala said...

सही और अच्छे मुद्दे को उठाया है , कुछ और बकवास बयान भी है जो शायद आप की नजर से छुट गए, अच्छा होता की सभी के नजर से छुट जाते । आप ने सही कहा की किसी भी समस्या का कोई एक उपाय तो कभी नहीं हो सकता है , थोडा थोडा सभी को बदलना होगा और सबसे पहले समाज की सोच को , वो बदले तो पुलिस आदि हर व्यवस्था अपने आप ही सही काम करने लगेगी । निराशा और खीज बहुत ज्यादा है एक तो सरकार बोल ज्यादा रही है और काम करती कम दिख रही है दुसरे नाबालिग अपराधी को सजा दिलाने के लिए भी सरकार कुछ करती नहीं दिख रही है , सिर्फ 4 महीने की आयु कम होने के कारंण वो बाख समता है ऐसा सोच कर भी गुस्सा आ रहा है ।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

प्रासंगिक मुद्दे पर सटीक एवं संतुलित बात .... अफ़सोस कि बलात्कार जैसे पाशविक कृत्यों को अंजाम देने में सबसे ज्यादा तो परिचित ही शामिल होते हैं .....

Randhir Singh Suman said...

nice

सुज्ञ said...

आप को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!!

Unknown said...

well said.

प्रेम सरोवर said...

शानदार प्रस्तुति से साक्षात्कार हुआ । मेरे नए पोस्ट "सपनों की भी उम्र होती है "पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है।