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Wednesday, July 13, 2011

भारी पड़ेगी ये खामोशी

वैसे तो आज कश्मीर पर एक पोस्ट लिखना चाहता था जो को मेरा प्रिय विषय भी है लेकिन आज टी.वी. पर देखी एक खबर ने थोडा विचलित कर रखा हैं. .कोयम्बटूर में आपसी झगडे के बाद एक युवक को चार युवकों ने सडक के बीचों बीच पहले बाईक से टक्कर मारी और फिर सिर पर भारी पत्थरों से वार कर उसकी जान ले ली.ये दृश्य चौराहे पर लगे सीसीटीवी कैमरे में ठीक उसी तरह कैद हो गये जैसे कुछ समय पहले पत्रकार जेडे की हत्या के दृश्य हमने देखे.लेकिन यह घटना थोडी अलग प्रकार की थी.कोयम्टूर में इस युवक की हत्या गोली मारकर नहीं बल्कि पत्थर मारकर की और हत्यारों ने इसके लिए पूरा समय लिया.वहाँ खडे सैकडों लोगों ने इस दृश्य को देखा लेकिन किसीकी हिम्मत नहीं हुई कि इन लडकों को रोक सके.टी.वी. पर भीड के रवैये को लेकर आलोचना हो रही थी लेकिन मैं सोचता हूँ कि वो लोग क्या सिर्फ इसलिए नहीं बोले कि वो डर रहे थे या कोई और कारण था.और यदि मैं वहाँ होता तो क्या कुछ कर पाता.
देशभर में इस तरह की घटनाएँ होती रहती है.छेडछाड हत्या मारपीट गैंगवार या लूट की घटनाएँ भरे बाजार में हो जाती है मगर लोग विरोध नहीं कर पाते.शुरूआत में मुझ पर ऐसी खबरों का कोई खास असर नहीं होता था.लेकिन चार पाँच साल पहले एक बार हमारे घर से मात्र तीन किलोमीटर दूर दिनदहाडे भरे बाजार में कुछ गुंडों ने तलवार से एक युवक की दोंनों हथेलियों को काट डाला था.तब पहली बार लगा कि यदि मैं वहाँ होता तो क्या करता.भीड का हिस्सा बन सब देखता रहता या क्षमताभर विरोध करता.सबसे पहले तो ख्याल आया कि ऐसा करने पर मेरी भी जान को नुकसान हो सकता था लेकिन यदि उस युवक की जगह मेरे घर का कोई सदस्य होता तो क्या तब भी मैं इस बात की परवाह करता कि सामने वालों के हाथों में तलवार है?नहीं,बिल्कुल नही.दूसरा ख्याल आया कि लोग क्या कहेंगे खुद मेरे घरवालों की क्या प्रतिक्रिया होगी.यही कि तुझे क्या जरूरत थी बीच में बोलने की.
 मुझे तो लगता है कई लोग इस कारण भी चुप रह जाते हैं की लोग क्या कहेंगे पर क्या लोगों की प्रतिक्रियाएं  किसीकी जान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है.या फिर अब हम पहले से ज्यादा असंवेदनशील और स्वार्थी हो गए है.
                 फिर भी बीच बीच में कुछ अच्छे उदाहरण भी सुनने को मिलते है.कुछ दिन पहले मैं एक महिला के बारे में पढ़ रहा था जो गुजरात दंगों के दौरान अपने मुस्लिम पड़ोसियों को बचाने के लिए हिंसक भीड़ के सामने हसिया लेकर  खडी  हो गई और किसी तरह अपने मकसद में कामयाब भी हो गई.दिल्ली में एक २२ वर्षीय युवक को अपनी सहपाठी के साथ छेड़छाड़ करने वालों का विरोध करने पर जान गंवानी पड़ती है.वही जयपुर के एक सिख छात्र का अपहरण इसीलिए कर लिया जाता है की उसने अपने साथ पढने वाली एक लड़की के साथ कुछ बदमाशों द्वारा बदतमीजी  किये जाने का विरोध किया था बाद में इस छात्र के साथ मारपीट की जाती है और उसके केश भी काट दिए जाते है. इन लोगों की बहादुरी के हम प्रशंसक है इन्होने अपनी जान की परवाह नहीं की.लेकिन एक या दो लोगों की ही बहादुरी दिखने से कुछ नहीं होगा कई बार इसके गलत परीणाम भी हो सकते है जैसे की ऊपर के दो उदाहरणों में दिए गए है.साथ ही मैं मानता हूँ की जहां कुछ शारीरिक होने का डर हो या आपकी जान पर ही बन आये वहाँ आवेश में आकर कोई कदम उठाना  हमेशा समझदारी भरा नहीं होता.खासकर जब आप अकेले हों या अपराधी हथियारबंद हों हालांकि वहां भी ये सवाल मुझे परेशान करता है की यदि हमारे घर की किसी महिला के साथ बदतमीजी हो या हमारे घर के किसी सदस्य के साथ मारपीट हो तब भी क्या हम इस बात का ख्याल करेंगे? यानी की हम इस मामले में स्वार्थी है?लेकिन फिर भी ये मान लेने में कोई हर्ज नहीं की प्रत्येक इंसान की कुछ सीमायें भी होती हैं.
                      पर कोयम्बटूर की इस घटना में तो किसी हथियार का इस्तेमाल नहीं किया गया बल्कि इन लोगों ने शराब भी पी राखी थी  ऐसे ही मंबई में एक बार नई साल के जश्न के दौरान जब महिलाओं के कपडे फाड़े जाते रहे तब भी ऐसी कोई बात नहीं थी लेकिन वहाँ भी लोग चुप चाप सब  देखते रहे.कम से कम ऐसी परिस्थियों में चुप रह जाने का मुझे कोई कारण नहीं नजर आता.राजस्थान,हरियाणा,उत्तर प्रदेश.,मध्य प्रदेश,बिहार में तो इस तरह की घटनाएं होती रहती है.लोगों द्वारा शुरुआत में ही  विरोध न करने के कारण ही यहाँ दादाओं,मुन्नाओं,ताऊओ,चौधारिओं,बाहुबलिओं के हौसले इतने बढ़  गए है.
                  पुलिस हर जगह मौजूद नहीं रह सकती और न ही हमें ऐसी उम्मीद करनी चाहिए.हमें न तो सीमा पर जाकर लड़ना है और न ही आज अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना है लेकिन हमारे आम जीवन में जब इस तरह की घटना हो तो वहाँ हमें उन सैनिकों या स्वतंत्रता  सैनानियों जिनकी बहादुरी की किस्से हमें रोमांचित करते है,की हिम्मत की कम से कम चौथाई हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी तभी असामाजिक तत्त्व ऐसी वारदात करने से पहले हजार बार सोचने को मजबूर होंगे. ठीक है जेसिका हत्याकांड जैसी घटना के समय लोग तुरंत कुछ नहीं कर पाए लेकिन जब पुलिस  को गवाहों की जरुरत पडी तो कोई सामने नहीं आया और कुछ को गवाही के लिए तैयार भी किया गया तो वो भी मुकर गए.कारण चाहे जो भी हो लेकिन भीड़ की इसी मानसिकता का फायदा अपराधी उठाते हैं.पुलिस या प्रसाशन की बेईमानी या असंवेदनशीलता को हम चाहे जितना कोसें लेकिन सच तो ये है की जब जब भी हमारी बारी आई तो हम भी पीछे हट गए हैं.पुलिस और व्यवस्था को बिगाड़ने में हमारा भी हाथ है.यदि हम यूँ ही चुप रह गए तो एक दिन ये खामोशी हम पर ही भरी पड़ेगी.
                   ये सब लिखने के बाद भी मैं  ये ही सोच रहा हूँ की उस घटना के वक्त मैं होता तो क्या विरोध कर पाता और इसका परिणाम क्या होता और यदि नहीं कर पाता तो शायद ये इससे जन्मा अपराधबोध  मेरा पीछा ही नहीं छोडता.
       

8 comments:

anshumala said...

लेख की हर बात से सहमत, लोग डर जाते है ज्यादातर लोग कमजोर होते है कुछ तो इतने कमजोर की अपने ही घर के लोगों पर हमला होने पर भी कुछ नहीं कर पाते है कई बार लोग परिवार के साथ होते है और इसलिए डर जाते है कई परिवार को कुछ ना हो जाये | सोचने के लिए तो मै भी यही सोचती हूं की मै होती तो विरोध करती पर कई बार जब हम उस घटना स्थल पर होते है तो दिमाग उस तरह काम नहीं करता जैसा अभी कर रहा है और ना ही उस तरह के फैसले लेता है | कोयम्बतूर की उस घटना को देख कर तो मुझे भी काफी दुःख और गुस्सा आया |

DR. ANWER JAMAL said...

Nice post .

मनोज कुमार said...

बहुत बढ़िया लिखा है आपने। आपसे सहमत भी हूं।

केवल राम said...

बहुत गहनता से हर बात का विश्लेषण करते हुए आपने हर एक पहलु को संतुलित रूप से प्रस्तुत किया है .....!

केवल राम said...

आपका लेखन सार्थक दिशा तय कर रहा है ....आशा है आप अपना लेखन जारी रखेंगे ....इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ..!

लोकेन्द्र सिंह said...

भीड़ की इसी मुर्दादिली के कारन देश में सब दूर हालत बदतर हैं....

डॉ. मोनिका शर्मा said...

ऐसी घटनाएँ देखकर या इनके विषय में जानकर मन रोष से भर जाता है...... पर मुझे लगता है की हमारी संवेदनाएं सच में बर्फ हो गयीं हैं | हम पलायनवादी बन गए हैं..... हम बच गए न.... बस......! यही सोच हावी है...यक़ीनन यह ख़ामोशी बहुत भारी पड़ेगी.......

Smart Indian said...

ऐसे हिंस्र अपराध इंसानियत के माथे पर कलंक हैं। भय का मुकाबला करने के लिये साहस के साथ क्षमता भी बढानी पडेगी। पुलिस न्याय व्यवस्था की कमज़ोरियाँ भी अपराधियों की हिम्मत बढाती हैं, उनमें सुधार भी एक बडी आवश्यकता है।